यह कथा है भगवान पर भक्त के श्रेष्ठता की घटना की। इसमें कोई संदेह नहीं कि भगवान सर्वश्रेष्ठ हैं लेकिन भक्त वत्सल भगवान हमेशा भक्तों को अपने से ज्यादा महत्व देते हैं। यही कारण है कि यदि भक्त वास्तविक है तो वह कई बार भगवान पर भारी पड़ता नजर आता है। प्रस्तुत कथा में भी ऐसा ही प्रसंग आया है, जब भगवान के बारे में भक्त उन्हें बता रहे हैं और भगवान उससे अनभिज्ञ हैं।
कथा का प्रसंग उन दिनों का है जब महर्षि वाल्मीकि रामायण लिख रहे थे। वे रोज दिन भर जितनी कथा लिखते, शाम में उसे वनवासियों को सुना देते। राम कथा सुनने के लिए काफी संख्या में वनवासी महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में संध्या के समय जुटने लगते थे। एक बार वाल्मीकि अशोक वाटिका प्रसंग सुना रहे थे। उन्होंने कहा कि हनुमान जी जब सीता माता की खोज करने अशोक वाटिका पहुंचे तो वहां उन्होंने सफेद फूल देखे। राम कथा सुन रहे एक वनवासी ने प्रतिरोध किया, हनुमान जी ने सफेद नहीं, लाल फूल देखे थे। बात बढ़ती गई। दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे। अंत में वाल्मीकि ने वनवासी से पूछा कि तुम्हें कैसे पता कि हनुमान ने वहां सफेद नहीं, लाल फूल देखे थे। तब वनवासी ने कहा कि मैं ही हनुमान हूं। इसके बाद वे वनवासी ने अपने वास्तविक रूप में आ गए। यह बात भी सर्वविदित है कि जहां कहीं भी राम कथा होती है वहां हनुमान जी गुप्त रूप से मौजूद रहते हैं। इतना होने के बाद भी वाल्मीकि अपनी बात पर अड़े रहे। उन्होंने हनुमान जी से कहा कि अशोक वाटिका में सफेद फूल ही थे।
विवाद बढ़ने पर दोनों मध्यस्थता कराने ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी ने हनुमान से कहा कि उन्होंने सफेद फूल ही देखे थे। लेकिन, उस समय उनकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं। इस कारण उन्हें सफेद फूल भी लाल दिखाई दिए। जाहिर है कि हनुमान जी ने ब्रह्मा के निर्णय को स्वीकार कर महर्षि वाल्मीकि की बात मान ली।