सृष्टि का विज्ञान है वेद-22

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जप में नहीं करें ये भूल, तभी मिलेगा पूरा फल
जप में नहीं करें ये भूल, तभी मिलेगा पूरा फल।

अब तक के वेद मंत्रों का अध्ययन करने वाले सुधि पाठकों ने महसूस किया होगा कि किसी भी मंत्र में ऋषियों ने देवताओं से भौतिक सुख, संपत्ति, सुरक्षा और बेहतर जीवन के अलावा कोई अन्य कामना नहीं की है। इसका यह भी मतलब निकलता है कि मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है वर्तमान को समृद्ध करते हुए भविष्य को बेहतर बनाने की कोशिश करना। सच भी है कि जो व्यक्ति वर्तमान को नहीं सुधार सकता, उससे भविष्य में क्या उम्मीद की जाए? धर्म भी इससे अलग नहीं हो सकता। वेद में एक खास बात और नजर आती है कि उस युग में भी पाप (दूसरे को पीड़ा पहुंचाने, मानवता एवं समाज के विरुद्ध कार्य करने) कर्म की निंदा की जाती थी और उससे दूर रहने का प्रयास किया जाता था। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उस दौर में गृहस्थ जीवन को ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। यहां तक कि ऋषियों का जीवन और उनकी अपेक्षा गृहस्थों वैसी ही थी। हां, कुछ त्यागी विद्वान लोग अवश्य मानवता के कल्याण में निरत रहते थे लेकिन उन्हें सामान्य मानव के बदले देवताओं के समकक्ष माना जाता था। आज के तथाकथित साधु एवं धर्मगुरुओं के लिए उस दौर में कोई स्थान नहीं था।


इतने समय तक वेद मंत्र देने का मकसद लोगों के मन में धर्म को लेकर फैले आडंबर, फर्जी पूजा-पाठ और तथाकथित कर्मकांड से मोह भंग करना था। वास्तव में वेद में मंत्र (प्रकृति को प्रभावित करने वाले एवं प्रिय लगने वाले शब्दों) की ही प्रधानता है। आज का विज्ञान भी मानता है कि शब्दों की एक अलग फ्रीक्वेन्सी है और उसका अलग प्रभाव भी है। दैनिक जीवन में भी देखें तो हम पाएंगे कि प्रिय वचन दूसरों को अच्छे लगते हैं जबकि कटु वचन से वह दुखी व क्रुद्ध होते हैं। वेद का असली संदेश भी सकारात्मकता एवं प्रिय वचन ही हैं। इसके साथ ही वेद में शब्दों के माध्यम से प्रकृति को प्रभावित करने एवं उसे अपने पक्ष में लाने पर भी जोर दिया गया है। अगले लेखों में मैं मौजूदा समय की चुनौती एवं विज्ञान की कसौटी पर वेद एवं उससे जुड़े अन्य मंत्रों को कसते हुए लोग बेहतर जीवन कैसे जी सकते हैं, के तरीके पर फोकस करूंगा। इसके साथ ही अब इस श्रृंखला का मकसद भी लगभग पूर्णता की ओर पहुंच चुका है, अत: कुछ समय के लिए इसे विराम दे रहा हूं। इस दौरान मेरा प्रयास रहेगा कि बीच-बीच में वेद के संदेश और उसकी व्याख्या को मौजूदा समय एवं चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में कसते हुए आपके समक्ष प्रस्तुत करूं। सृष्टि का विज्ञान है वेद की इस अंतिम कड़ी में सूक्त 41, 42 एवं 43 को प्रस्तुत कर रहा हूं। सूक्त 43 के मंत्रों में रूद्र को पहली बार श्रेष्ठ देवता के रूप दर्शाया गया है। उन्हें भी प्रकृति से जुड़े तथा औषधियों को प्रदान करने वाले एवं सुख देने वाले देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। इन सारे मंत्रों में एक बात पुन: साफ होता है कि उस दौरान सबसे ज्यादा जोर भौतिक सुख पर दिया गया है। दुर्भाग्य से गुलामी के दौर में विदेशी शासकों ने भारतीय जनमानस को कुंद करने के लिए धर्म में त्याग, तपस्या, वैराग्य, धर्म भीरुता आदि की महत्ता दिखाकर उनका जीवन नर्क के समान बना दिया। बाद में धर्म के नाम पर असली सुधार के बदले दुकान चलाने वाले धर्मगुरुओं की बहुतायत हो गई और लोग उनके चंगुल में फंसकर धर्म की मूल भावना से ही विमुख हो गए


सूक्त-41

(ऋषि-कण्व घोर।   देवता-अग्नि।   छंद-गायत्री)

यं रक्षंति प्रचेतसे वरुणो मित्रो अर्यमा। नू चित स दभ्यते जन: ।।1

यं बाहुतेव पिप्रति पान्ति मर्त्यं रिष:। अरिष्ठ: सर्व एधते ।।2

वि दुर्गा वि द्विष: पुरो ध्नान्ति राजान एषाम्। नयन्ति दुरिता तिर: ।।3

सुग: पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते। नात्रावाखादो अस्ति व: ।।4

यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा। प्र व: स धीतये नशत् ।।5।।21

अर्थ–उत्कृष्ट ज्ञानी वरुण, मित्र और अर्यमा जिसकी रक्षा करें उस मनुष्य को कोई मार नहीं सकता। अपने हाथ से विभिन्न धन देते हुए वरुणादि देवगण जिसकी रक्षा करते हैं, उसे कोई शत्रु संतप्त नहीं कर सकता, बल्कि वह सब ओर से बढ़ता है। वरुणादि देवता साधकों के कष्टों का नाश करते, शत्रुओं को मारते और दुखों को दूर करते हैं। हे आदित्यों! यज्ञ को प्राप्त होने के लिए आपके मार्ग में कोई कंटक नहीं है।इस यज्ञ में आपके लिए हवि रूप भोजन निकृष्ट नहीं है। हे पुरुषों! जिस यज्ञ को सरल विधान से तुम करते हो, वह तुम्हें प्राप्त हो।


स रत्नं मर्त्यो वसु विश्वं तोकमुत त्मना। अच्छा गच्छत्यस्तृत: ।।6

कथा राधाम सखाय: स्तोमं मित्रस्यार्यम्ण:। महि प्सरो वरुणस्य ।।7

मा नो घ्नन्तं मा शपन्तं प्रति वोचे देवयंतम्। सुम्नेरिद् व आ विवासे ।।8

चतुरश्चित् ददमानाद् बिभीयादा निधातो:। न दुरुक्ताय स्पृहयेत् ।।9।।23

अर्थ–हे आदित्यों! आपका साधक किसी से पराजित नहीं होता। वह उपभोग्य धन और संतान को प्राप्त करता है। हे मित्रों! मित्र और अर्यमा के स्तोत्र को हम कैसे साधन करें? वरुण के हवि रूप भोजन को किस प्रकार सिद्ध करें? हे देवगण! यजमान की हिंसा करने के इच्छुक अथवा उसके प्रति कटु वचन कहने की बात मैं आपसे नहीं कहता हूं। मैं तो स्तुतियों से आपको प्रसन्न करता हूं। चारों प्रकार के कुकर्म करने वालों को वश में रखने वाले से डरना चाहिए, परंतु दुर्वचन बोलने वाले से परहेज करें।


सूक्त-42

(ऋषि-कण्व घोर।   देवता-पूषा।   छंद-गायत्री)

सं पूणन्नध्वनस्तिर व्यंहो विमुचो नपात्। सक्ष्वा देव प्र णस्पृर: ।।1

यो न: पूणन्नघो वृको दु:शेव आदिदेशति। अप स्म तं पथो जहि ।।2

अप त्यं परिपन्थिनं मुपीवाणं हुरश्चितम्। दूरमधि स्रुतेरज ।।3

त्वं तस्य द्वयाविनो स्घशंसस्य कस्य चित्। पदाभि तिष्ठ तपुषिम् ।।4

आ तत् ते दस्र मन्तुम: पूपन्नवो वृणीमहे। येन पितृनचोदय: ।।524

अर्थ–हे पूषन्! हमें दुखों से पार लगाइए और हमारे पापों को नष्ट कीजिए। हमारे अग्रगामी बनिए। हे पूषा देव! हिंसक, चोर, जुआ खेलने वाले जो हम पर शासन करना चाहते हैं, उन्हें हमसे दूर कर दीजिए। मार्ग रोकने वाले, चोर, लुटेरे, कुटिल दस्यु को हमारे मार्ग से हटा दीजिए। हे पूषन्! आप पाप को बढ़ावा देने वाले क्रोधी को अपने पैरों से कुचल डालिए। हे विकराल कर्म वाले ज्ञानी पूषादेव! आपसे रक्षा की आशा में हम स्तुति करते हैं, उस रक्षा ने हमारे पूर्व पुरुषों को भी बढ़ाया था।


अधा नो विश्वसौभग हिरण्यवाशीमत्तम। धनानि सुषणा कृधि ।।6

अति न: सश्चतो नय सुगा न: सुपथा कृणु। पूषन्निह क्रतुं विद: ।।7

अभि सूयवसं न् न नवज्वारो अध्वने। पूषन्निह क्रतुं विद: ।।8

शग्धि पूर्धि प्र यंसि च शिशीहि प्रास्युदरम्। पूषन्निह क्रतुं विद: ।।9

न पूषणं मेथामसि सूक्तैरभि गृणीमसि। वसूनि दस्ममीमहे ।।10।।25

अर्थ–हे परम सौभाग्यशाली, स्वर्ण रथ वाले पूषा देव! हमें सुसाध्य धन को प्राप्त करने की शक्ति प्रदान कीजिए। क्लेश में पड़े हुए हमको शत्रुओं से दूर ले जाइए। हमें सरल मार्गावलंबी बनाइए। हे पूषन्! हमें अपनी रक्षा के लिए बल प्रदान कीजिए। जहां कृषि लायक सुंदर भूमि हो और मार्ग में कोई संकट न आए हमें वहां ले चलिए। हमारी रक्षा के लिए आप और बलिष्ठ होइए। हे समर्थ पूषन्! हमें इच्छित धनादि दीजिए, तेजस्वी बनाइए, हमारी उदर की पूर्ति कीजिए और हमारे लिए बल प्राप्त कीजिए। हम पूषा देव की निंदा नहीं, स्तुति करते हैं और उस अद्भुत देव से धन मांगते हैं।


सूक्त-43

(ऋषि-कण्व घोर।  देवता-रुद्र, मित्र और वरुण।  धंद-गायत्री, अनुष्टुप।)

कद रुद्राय प्रचेतसे मीह्लुष्टमाय तव्यसे। वोचेम शंतमं हृदे ।।1

यथा नो अदिति: करत् पश्वे नृभ्यो यथा गवे। यथा लोकाय रुद्रियम् ।।2

यथा नो मित्रो वरुणो यथा रुद्रश्चिकेतति। यथा विश्वे सजोषस: ।।3

गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलापभेषजम्। तच्छंयो: सुम्नमीमहे ।।4

य: शुक्र इव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते। श्रेष्ठो देवानां वसु: ।।5।।26

अर्थ– मेधावी, अभीष्ट वर्षक महोली रूद्र के लिए किस सुखकारी स्तुति का पाठ करें, जिससे पृथिवी हमारे पशु, मनुष्य, गौ, संतान आदि के लिए रूद्र संबंधी औषधि को उपजाए। जिससे मित्र, वरुण और रूद्र देवता तथा संतान प्रीति वाले अन्य देवता हमसे संतुष्ट हों। हम स्तुतियों को बढ़ाने वाले, यज्ञ के स्वामी एवं सुख स्वरूप औषधियों से युक्त रूद्र से आरोग्य और सुख की याचना करते हैं। सूर्य की तरह दमकते हुए एवं स्वर्ण की तरह चमकते हुए वे रूद्र देवताओं में श्रेष्ठ और ऐश्वर्यों के स्वामी हैं।


शं न: करत्यर्वते सुगं मेषाय मेष्ये। नृभ्यो नारिभ्यो गवे ।।6

अस्मे सोम श्रियमिधि नि धेहि शतस्य नृणाम्। महि श्रवस्तुविनृम्णम् ।।7

मा न: सोमपरिबाधो मरातयो जुहुरंत। आ नं इंदो वाजे भज ।।8

यास्ते प्रजा अमृतस्य परिस्मिन् धामव्रृतस्य ।

मूर्धा नाभा सोम वेन आभूपन्ती: सोम वेद: ।।9।।27

अर्थ– हमारे अश्व, मेढ़ा और गवादि के लिए वे रूद्र कल्याणकारी हों। हे सोम! मनुष्यों को सौगुना ऐश्वर्य दीजिए। हमको बल सहित महान यश प्रदान कीजिए। सोमयाग में बाधा देने वाले हमें दुख न देने पाएं तथा शत्रु हमें न सता पाएं। हे सोम! हमें बल प्रदान कीजिए। हे सोम! उत्तम स्थान वाले आप संसार में मूर्धा के समान अपनी प्रजा से स्नेह कीजिए। आप अपने को विभूषित करने वाली प्रजा को जानने वाले बनिए।



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