इस कड़ी में प्रस्तुत सूक्त-24 और 25 में मुख्य रूप से अग्नि, सूर्य और वरुण की स्तुति की गई है। एक रोचक तथ्य यह है कि पूर्व के मंत्रों में जहां अग्नि को देवताओं के दूत के रूप में संबोधित किया गया है, वहीं इसमें उन्हें अमरत्व प्राप्त देवताओं में पहले नंबर पर रखा गया है। इस बारे में विवाद हो सकता है कि अग्नि का देवता के रूप में नाम बाद में जोड़ा गया या पहले के मंत्र ही जोड़े हुए हैं लेकिन यह निर्विवाद है कि अग्नि बाद के समय में प्रमुख देवता में शामिल कर लिये गए थे। इन मंत्रों में वरुण की महिमा का भी जमकर गुणगान किया गया है। एक तरह से उन्हें प्रकृति के नियमों के निर्माता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। साथ ही उन्हें धन, संपदा, आयु और ऐश्वर्य प्रदान करने वाला भी बताया गया है। अंतिम मंत्रों में उन्हें आमने-सामने देखने और उनसे वार्तालाप करने की बात कही गई है, जो इस बात का प्रतीक है कि उस जमाने में मनुष्यों और देवताओं में सीधे वार्तालाप और संपर्क होता था।
सूक्त-24
(ऋषि-शुन:शेप आजीर्गति, कृतमो वैश्वामित्र देवरात। देवता-प्रजापति प्रभृति। छंद-त्रिष्टुप गायत्री)
कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम ।
को नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च ।।1
अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम ।
स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च ।।2
अभि त्वा देव सवितरीशानां वार्याणाम्। सदावन् भागमीमहे ।।3
यश्चिद्ध त इत्था भग: शशमान: पुरा निद:। अद्वेषो हस्तयोर्दधे ।।4
भगभक्तस्य ते वयमुदशेम तवावसा। मूर्धानं राय आरभे ।।5।।13
अर्थ–मैं किस देवता के सुंदर नाम का उच्चारण करूं? कौन मुझे अदिति को देगा, जिससे मैं पिता और माता को देख सकूं? अमरत्व प्राप्त देवताओं में सर्वप्रथम अग्नि का नामोच्चार करें। वह मुझे महती अदिति को दें और मैं माता-पिता को देख सकूं। हे सतत रक्षणशील एवं वरणीय धनों के स्वामी सविता देव! हम सभी ऐश्वर्यों की कामना से आपकी साधना करते हैं। हे सूर्य! सत्य, अनित्य, स्तुत्य, द्वेष रहित और सेवनीय धन को आप धारण करने वाले हैं। हे ऐश्वर्यशाली सूर्य! आपकी रक्षा में आश्रित हम आपके सेवक ऐश्वर्य साधनों की वृद्धि में लगे रहते हैं। आप हमारी रक्षा करें।
नहि ते क्षत्रं न सहो न मन्युं वयश्चनामी पतयंत आपु:।
नेमा आपो अनिमिषं चरंतीर्न ये वातस्य प्रमिनन्त्यभ्वम्।।6
अबुघ्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्ष:।
नीचीना: स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अंतर्निहिता: केतव: स्यु:।।7
उरुं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पंथामन्वेतवा उ।
अपदे पादा प्रतिधातवेस्करुतापवक्ता हृदयाविधश्चित्।।8
शतं ते राजन् भिषज: सहस्रमुर्वी गभीरा सुमतिष्टे अस्तु।
बाधस्व दूरे निर्ऋ ति पराचै: कृतं चिदेन: प्र मुमुग्ध्यस्मत्।।9
अभी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चित् दिवेयु:।
अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चंद्रमा नक्तमेति ।।10।।14
अर्थ–हे वरुण! आपके अखंड राज्य, वय और क्रोध की सीमा तक उड़ते हुए पक्षी नहीं पहुंच पाते। निरंतर चलते हुए और प्रबल वायु का वेग भी आपकी गति को रोक नहीं पाता। पवित्र पराक्रमयुक्त वरुण आकाश के ऊपर की ओर तेज समूह को स्थापित करते हैं। इस तेज समूह का मुख नीचे और जड़ ऊपर है। यह हमारे भीतर स्थित होकर बुद्धि रूप में वास करें। वरुण ने सूर्य के पांव रखने की व्यवस्था की है। वे वरुण मेरे हृदय को कष्ट देने वाले को हराने में समर्थ हैं। हे वरुण! आपके पास अनंत उपाय हैं। आपकी कल्याण बुद्धि गंभीर और दूर तक जाने वाली है। आप पाप के बल को नष्ट करें और हमारे द्वारा किए गए पापों से हमको मुक्त कराएं। ये तारे रूप सप्तर्षि उन्नत स्थान में बैठे हुए रात्रि में दिखते थे, वे दिन में कहां विलीन हो गए? चंद्रमा भी सिर्फ रात में प्रकाशित होता चलता है। वरुण के नियम अटल हैं।
तत् त्वा यामि ब्रह्मणा वंदमानस् तदा शास्ते यजमानो हविभिर्:।
अहेलमानो वरुणेह वोध्युरूशंस मा न आयु: प्र मोषी: ।।11
तदिन्नक्तं तद् दिवा मह्यमाहुस् तदयं केतो हृद आ वि चष्टे।
शुन:शेपो यमह्वद् गृभीत: सो अस्मान् राजा वरुणो मुमोक्तु ।।12
शुन:शेपो ह्यह्वद् गृभीतस् त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्ध:।
अवैनं राजा वरुण: ससृज्याद् विद्वां अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान् ।।13
अव ते हेलो वरुण नमोभिरव यज्ञेभिरीमहे हविभिर्:।
क्षयन्नस्मभ्यमसुर प्रचेता राजन्नेनांसि शिश्रथ: कृतानि।।14
उदुत्तमं वरुण पाशमस्मादवाधमं वि मध्यमं श्रथाय।
अथा वयामादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम।।15।।15
अर्थ–हे वरुण! मंत्रयुक्त वाणी से स्तवन करता हुआ आपसे ही याचना करता हूं। हवि वाला यजमान, क्रोध न करने की प्रार्थना करता हुआ आपसे आयु मांगता है। रात और दिन यही बात मेरे हृदय में उठती है कि बंधन में पड़े शुन:शेप ने वरुण को बुलाया था, वह हमको भी बंधन से मुक्त करें। पकड़े जाकर काठ के तीन खंबों से बांधे गए शुन:शेप ने अदिति पुत्र वरुण का आह्वान किया। वे वरुण विद्वान और कभी धोखा न खाने वाले हैं। वे मेरे पापों को काटकर मुक्त करें। हे वरुण! हमारे स्तुति वचनों से अपने क्रोध का निवारण कीजिए। आप प्रखर बुद्धि वाले हमारे यहां वास करते हुए हमारे पापों के बंधन को ढीला करें। हे वरुण! हमारे ऊपर के पाश ऊपर और नीचे के पाश को नीचे खींचकर बीच के पाश को काट दीजिए। हम आपके नियम के अनुसार चलते हुए निरपराध रहें।
सूक्त-25
(ऋषि-शुन शेप आजीगर्ति इत्यादय। देवता-वरुण। छंद-गायत्री)
यच्चिद्धि ते विशो यथा प्र देव वरुण व्रतम्। भिनीमसि द्यविद्यवि ।।1
मा नो वधाय हत्नवे जिहीलानस्य रीरध:। मा हृणानस्य मन्यवे ।।2
वि मृलीकाय ते मनो रथीरश्वं न संदितम्। गीर्भीर्वरुण सीमहि ।।3
परी हि मे विभन्यव: पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरूप ।।4
कदा क्षत्रश्रियं नरमा वरुणं करामहे। मृलीकायोरुचक्षसम् ।।5।।16
अर्थ–हे वरुण! जैसे आपके व्रतानुष्ठान में मनुष्य प्रमाद करते हैं, वैसे ही हम आपके नियमादि का उल्लंघन कर बैठते हैं। हे वरुण! निरादर करने वाले को दंड उसकी हिंसा है। हमको यह दंड नहीं दें, हम पर क्रोध न करें। हे वरुण! स्तुतियों द्वारा हम आपकी उसी प्रकार कृपा चाहते हैं जिस प्रकार अश्व का स्वामी उसके घावों पर पट्टियां बांधता है। घोसलों की ओर दौडऩे वाली चिडिय़ों के समान हमारी क्रोध रहित बुद्धियां धन प्राप्ति के लिए दौड़ती हैं। अखंड ऐश्वर्य वाले दूरदर्शी वरुण की कृपा प्राप्ति के लिए उन्हें अपने अनुष्ठान में ले आएंगे।
तदति समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छत:। धृतव्रताय दाशुषे ।।6
वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नाव: समुद्रिय: ।।7
वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावत:। वेदा ये उपजायते ।।8
वेद वातस्य वर्तनिमुरोर्ऋष्वस्य बृहत:। वेदा ये अध्यासते ।।9
नि षसाद धृतव्रतो वरुण: पस्त्यास्वा। साम्राज्याय सुक्रतु: ।10।।17
अर्थ–हवि की इच्छा वाले मित्र वरुण, निष्ठावान यजमान की साधारण हवि को भी नहीं त्यागते। हे वरुण! आप उडऩे वाले पक्षियों के आकाश मार्ग और समुद्र के नौका मार्ग के पूर्ण ज्ञाता हैं। वे धृत नियम वरुण, प्रजाओं के उपयोगी बारह मासों तथा तेरहवें अधिक मास को भी जानते हैं। वे मूर्धा रूप से स्थित, विस्तृत, उन्नत, महान वायु के मार्ग को अच्छी तरह से जानते हैं। नियमों में दृढ़, सुंदर, प्रज्ञावान् वरुण प्रजाजनों में साम्राज्य स्थापित करने के लिए बैठते हैं।
अतो विश्वान्यद्भुता चिकित्वाँ अभि पश्यति। कृतानि या च कर्त्वा ।।11
स नो विश्वाहा सुक्रतुरादित्य: सुपथा करत्। प्र ण आयूंषि तारिषत् ।।12
बिभ्रद द्रापिं हरिण्ययं वरुणो वस्त निणिंजम्। परि स्पशो नि षेदिरे ।।13
न यं दिप्सन्ति दिप्सवो न द्रुह्वाणो जनानाम्। न देवमभिमातय: ।।14
उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा ।।15।।18
अर्थ–जो घटनाएं हुईं या होने वाली हैं, उन सबको वे मेधावी वरुण इस स्थान से देखते हैं। वे श्रेष्ठ बुद्धि वाले वरुण हमको सदा सुंदर मार्ग दें और हमको आयुष्मान करें। सोने के कवच से उन्होंने अपना मर्म भाग ढक लिया है, उनके चारों ओर समाचार-वाहक उपस्थित हैं। जिन्हें शत्रु धोखा नहीं दे सकते, विद्रोही जिनसे द्रोह करने में सफल नहीं हो सकते, उन वरुण से कोई शत्रुता नहीं कर सकता। जिस वरुण ने मनुष्यों के लिए अन्न की भरपूर स्थापना की है, वह हमें उदर में अन्न ग्रहण करने की सामर्थ्य देते हैं।
परा मे यन्ति धीतयो गावो न गव्यूतीरनु। इच्छन्तीरुरुचक्षसम् ।।16
सं नु वोचावहै पुनर्यतो मे मध्वाभृतम्। होतेव क्षदसे प्रियम् ।।17
दर्शनु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि। एता जुषत मे गिर: ।।18
इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मृलय। त्वामवस्युरा चके ।।19
त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि। स यामनि प्रति श्रु धि ।।20
उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे ।।2119
अर्थ–दूरदर्शी वरुण की कामना करती हुई मनोवृत्तियां निवृत्त होकर वैसे ही पहुंचती हैं, जैसे चरने के स्थान की ओर गौएं जाती हैं। मेरे द्वारा संपादित मधुर हवि को अग्नि के समान प्रीतिपूर्वक भक्षण कीजिए। फिर हम दोनों वार्तालाप करेंगे। सबको देखने योग्य वरुण को, उनके रथ सहित मैंने भूमि पर देखा है। उन्होंने मेरी स्तुतियां स्वीकार कर ली हैं। हे वरुण! मेरे आह्वान को सुनिए और मुझ पर कृपा कीजिए। मुझ पर कृपा करने की इच्छा वाले आपको मैंने पुकारा है। हे मेधावी वरुण! आप आकाश और पृथिवी के स्वामी हैं। आप हमारे आह्वान का उत्तर दीजिए। हे वरुण! ऊपर के पाश को ऊपर और नीचे के पाश को नीचे खींचकर बीच के पाश को काट कर हमें जीवन दीजिए।