लोग अक्सर आत्मा और शरीर के भेद को नहीं समझ पाते हैं। उन्हें दोनों एक ही लगता है। यह सही है कि सामान्य नजरिए से देखें तो किसी व्यक्ति के लिए शरीर और आत्मा अभिन्न है। यदि एक भी न हो तो व्यक्ति का अस्तित्व नहीं रह पाता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि आध्यात्मिक दृष्टि से शरीर नश्वर है और आत्मा शाश्वत। आत्मा के लिए शरीर कर्म करने का माध्यम भर है। आत्मा मूल तत्व है और शरीर वस्त्र की तरह, जिसे अधिकतर लोग समझ नहीं पाते हैं। यही कारण है कि उन्हें न सिर्फ दुख का सामना करना पड़ता है, बल्कि जीवन भर वह भ्रम में पड़े रहते हैं। उनकी मुक्ति में भी यही सबसे बड़ी बाधा है। ज्ञानीजन शरीर और आत्मा के भेद को न सिर्फ समझते हैं, बल्कि उसका उपयोग करना भी जानते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है। आदि गुरु शंकराचार्य ने लोगों को आत्मा को कर्म के बंधन से मुक्त कर बार-बार जन्म लेने से मुक्त होने का मार्ग दिखाया है। भगवान श्रीकृष्ण और शंकराचार्य ने कहा है कि शरीर के कर्म से आत्मा को अलग रखें तो आप उसके पाप और पुण्य के भाग से बच सकते हैं। अर्थात शरीर के कर्म में कर्ता भाव न रखें। गोपियों व वेदव्यास की निम्न कथा में भी यही संदेश मिलता है।
एक बार गोपियों को यमुना पार कर कहीं जाना था। लेकिन, बारिश के मौसम में यमुना में बाढ़ आई हुई थी। गोपियां उसे पार करने में डर रही थीं। उन्होंने बगल में ध्यान लगा रहे व्यास ऋषि से नदी पार कराने की व्यवस्था करने का अनुरोध किया। वेदव्यास ने कहा कि उन्हें भूख लगी है। अगर गोपियां उन्हें कुछ खाने को दें तो वे उन्हें यमुना पार करा सकते हैं। गोपियों ने उन्हें मक्खन से भरा घड़ा भेंट किया। व्यास ऋषि देखते ही देखते सारा मक्खन खा गए और कहा कि यदि मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया हो तो यमुना गोपियों को मार्ग दे दे। यमुना नदी ने गोपियों को मार्ग दे दिया। लेकिन, गोपियां आश्चर्यचकित रह गईं। उन्होंने वेद व्यास से पूछा कि आपने हम सबके सामने इतना मक्खन खाया। फिर भी आपने कहा कि आप भूखे हैं और नदी ने भी आपकी बात सही ठहराई। तब व्यास जी ने कहा कि उनका यह विश्वास है कि उन्होंने कुछ नहीं खाया। भोजन तो शरीर के लिए है। लेकिन, मैंने शरीर और आत्मा को अलग-अलग पहचान लिया है। विश्वास की शक्ति ही सर्वाेपरि होती है।