सृष्टि का विज्ञान है वेद-11

322

अब तक के स्तोत्रों को देखकर सुधि पाठकों को पूरी तरह से स्पष्ट हो गया होगा कि वैदिक काल में इंद्र, अग्नि, वरुण आदि देवता ही प्रधान थे। लोग हर संकट और आवश्यकता में उन्हें याद करते थे, उनकी स्तुति करते, उन्हें सोमरस, हवन की आहूतियां देते और उनकी प्रार्थना करते थे। इनमें भी देवराज इंद्र का स्थान सबसे ऊपर था। वास्तव में द्वापर के अंत तक उनका प्रभाव बरकरार रहा। बाद में वह विकृत रूप लेकर प्रकृति पूजा से व्यक्ति पूजा में परिवर्तित हो गया। श्रीकृष्ण ने उनकी व्यक्तिवादी पूजा का जबर्दस्त विरोध किया। उन्होंने इंद्र की व्यक्तिवादी (कर्मकांडी पूजा) को बंद कराकर गोवर्धन पर्वत (प्रकृति) की पूजा शुरू करायी। कालांतर में इंद्र की पूजा लगभग बंद सी ही हो गई लेकिन दुर्भाग्य से उनके स्थान पर सैकड़ों अन्य देवी-देवताओं समेत, धर्मगुरुओं तक की व्यक्तिवादी पूजा शुरू हो गई और श्रीकृष्ण का युग बदलने का प्रयास बेकार गया। इन मंत्रों में जल और सूर्य के औषधीय गुणों की भी चर्चा की गई है। इस कड़ी में सूक्त 23 के मंत्र और उनके अर्थ दिए जा रहे हैं।


सूक्त-23

(ऋषि-मेघातिथि काण्व। देवता-वायु इत्यादय। छंद-गायत्री, उष्णिक, प्रतिष्ठा, अनुष्टुप)

तीव्रा: सोमास आ गह्याशीर्वंत: सुता इमे। वायो तान् प्रस्थितान् पिब ।।1
उभा   देव   दिविस्पृशेन्द्रवायू   हवामहे।  अस्य  सोमस्य  पीतये ।।2
इन्द्रवायू  मनोजुवा  विप्रा   हवन्त  ऊतये।  सहस्राक्षा   धियस्पती ।।3
मित्रं   वयं   हवामहे   वरुणं   सोमपीतये।  जज्ञाना   पूतदक्षसा ।।4
ऋतेन   यावृतावृधावृतस्य  ज्योतिषस्पती।  ता   मित्रावरुणा   हुवे ।।5।।8

अर्थ–हे वायो! आइए, यह वेग वाले दूध से मिले हुए और छाने हुए सोमरस रखे हैं, इनका पान कीजिए। आकाश को छूने वाले इंद्र और वायु देवता का हम सोमरस पान करने के लिए आह्वान करते हैं। मन की तरह द्रुतगामी सहस्र चक्षु, कर्मशील इंद्र और वायु को अपनी रक्षा के लिए ज्ञानीजन बुलाते हैं। मित्र और वरुण को हम सोमपान करने के लिए बुलाते हैं। वे पवित्र और बलवान हैं। सत्य से यज्ञ को बढ़ाने वाले प्रकाश के पालक मित्र और वरुण का मैं आह्वान करता हूं।


वरुण: प्राविता भुवन् मित्रो विश्वाभिरूतिभि:। करतां न: सपराधस: ।।6
मरुत्वन्तं   हवामह    इंद्रमा   सोमपीतये।  सजूर्गणेन  तृम्पतु ।।7
इंद्रज्येष्ठा  मरुद्गणा  देवास:  पूषरातय:। विश्वे  मम श्रुता हवम् ।।8
हत  वृत्रं  सुदानव  इंद्रेण  सहसा  युजा। मा  नो  दु:शंस  ईशत ।।9
विश्वान्  देवान्  हवामहे  मरुत:  सोमपीतये। उग्रा हि पृश्निमातर: ।।10।।9

अर्थ–वरुण मेरे रक्षक हों, इंद्र भी रक्षा करें और ये दोनों मुझे धनवान बना दें। मरुतों सहित हम इंद्र का आह्वान करते हैं। वे सोमपान के लिए यहां आकर तृप्त हों। पूषा दाता हैं और दाताओं में मुख्य हैं। वे मरुद्गण हमारे आह्वान को सुनें। हे सुशोभित दानी मरुतों! आप बली और सहायक इंद्र के साथ मिलकर शत्रुओं को नष्ट कर दें। कहीं दुष्ट लोग हम पर शासन न करने लगें। सब मरुत नाम वाले देवों को सोमपान के लिए बुलाते हैं। वे उग्र और अंतरिक्ष की संतान हैं।


(ऋषि-मेघातिथि काण्व। देवता-वायु इत्यादय। छंद-गायत्री, उष्णिक, प्रतिष्ठा, अनुष्टुप)

जयतामिव  तन्यतुर्मरुतामेति  धृष्णुया।  यच्छुभं  याथना  नर: ।।11
हस्कराद् विद्युतस्पर्यस्तो जाता अवन्तु न:। मरुतो मृलयन्तु  न: ।।12
आ  पूषंचित्रबर्हिषमाघृणे  धरुणं  दिव:। आजा  नष्टं  यथा पशुम् ।।13
पूषा  राजानमाघृणिरपगूह्लं  गुहा  हितम्।   अविन्दच्चित्रबर्हिषम् ।।14
उतो स मह्यमिन्दुभि: षड्युक्तां अनुसेषिधत्। गोभिर्यवं न चर्कृषत् ।।15।।10

अर्थ–मरुतों का गर्जन विजयनाद के समान है, उससे मनुष्यों का मंगल होता है। विद्युत के प्रकाश कर हंसमुख (सूर्य) से उत्पन्न मरुद्गण हमारे रक्षक हों और हमारा कल्याण करें। हे दीप्तियुक्त पूषा! जैसे खोये गए पशु को ढूंढ कर लाते हैं, वैसे ही आप कुशा से युक्त यज्ञधारक सोम को ले आइए। सब ओर से प्रकाशित पूषा ने गुफा में छिपे हुए कुशयुक्त राजा सोम को प्राप्त किया। वह युवा सुघटित छैओं ऋतुओं को सोमों द्वारा प्राप्त करता रहे, जैसे किसान जौ को बार-बार करता है।


अम्बयो  यन्त्यध्वभिर्जार्वा  अध्वरीयताम्।  पृंचतीर्मधुना  पय: ।।16
अमूर्या उप सूर्ये याभिवर्या  सूयर्: सह। ता नो  हिन्वन्त्वध्वरम् ।।17
अपो देवीरूप ह्वये यत्र गाव: पिबंति न:। सिंधुभ्य  कर्त्वं हवि: ।।18
अस्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिन: ।।19
अप्सु मे सोमो अब्रवीदंतर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्ववशंभुवमापश्च विश्वभेषजी ।।20।।11

अर्थ–यज्ञ की इच्छा करने वालों का मातृ भूत जल हमारा बंधु रूप है और वह दूध को पुष्ट करता हुआ यज्ञ मार्ग से चलता है। जो जल सूर्य के पास स्थित है अथवा सूर्य जिनके साथ हैं, वे हमारे यज्ञ को सींचें। जिन जलों को हमारी गायें पीती हैं, उन जलों को हम चाहते हैं। जो जल बह रहा है, उसे हवि देनी है। जलों में अमृत है, जलों औषधि है, जलों की प्रशंसा से उत्साह प्राप्त करें। सोम के कथनानुसार जल ही औषधि तत्व है, उसने सर्व सुखदाता अग्नि और आरोग्य देने वाले जलों का गुण वर्णन किया है।


आप: पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम। ज्योक् च सूर्यं दृशे ।।21
इदमाप: प्र वहत यत् किं च दुरितं मयि। यद् वाहमभिदुद्रोह यद् वा शेप उतानृतम् ।।22
आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि। पयस्वानग्न आ गहि तं मा सं सृज वर्चसा ।।23
सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा। विद्युर्मे अस्य देवा इंद्रो विद्यात् सह ऋषिभि: ।।24।।12

अर्थ–हे जलों! चिरकाल तक सूर्य दर्शन एवं निरोग रहने के लिए शरीर रक्षक औषधि को मेरे शरीर में स्थित कीजिए। हे जलों! मुझ में स्थित पाप को बहा दीजिए। मेरे द्रोह भाव, अपगंध और मिथ्याचरण को प्रताडि़त कीजिए। आज मैंने जलों को पाया है, उन्होंने मुझे रसयुक्त किया है। हे अग्ने! जलों के साथ आकर मुझे तेजस्वी बनाइए। हे अग्ने! मुझे तेजस्वी बनाइए और प्रजा व वायु से युक्त कीजिए। देवगण, ऋषिगण और इंद्रदेव मेरे स्तवन को जान लें।



LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here