सृष्टि का विज्ञान है वेद-21

350
जप में नहीं करें ये भूल, तभी मिलेगा पूरा फल
जप में नहीं करें ये भूल, तभी मिलेगा पूरा फल।

प्रकृति और उसकी शक्ति किसी से भेदभाव नहीं करती है। आप उसे जैसी भावना देते हैं, वह वैसा ही लौटाकर देती है। प्राचीन ऋषियों को इसका ज्ञान था। इसी कारण वे इस शक्ति का भरपूर दोहन करते थे। सूक्त 39 और 40 के मंत्रों में स्पष्ट है कि ऋषिगण मरुतों से भयभीत हैं लेकिन इसके बावजूद उनमें ही पूरी आस्था और विश्वास व्यक्त कर रहे हैं। वे उनकी लगातार स्तुति कर उन्हें अपनी ओर प्रेरित करने का प्रयास कर रहे हैं। इन मंत्रों में वे न सिर्फ मरुतों को अपने अनुकूल होने के लिए कह रहे हैं बल्कि अपने दुश्मनों के नाश की भी प्रार्थना कर रहे हैं। जाहिर है कि ऐसा प्रयास कभी निरर्थक नहीं जाता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ऋषिगण सुखकारक एवं विघ्ननाशक मंत्रों का उच्चारण कर देवताओं (प्रकृति की शक्ति) से अपेक्षा कर रहे हैं कि वे उन्हें प्रिय लगे। सूक्त 40 मुख्य रूप से ब्रह्मणस्पति एवं इंद्रादि देवताओं के लिए है। उनसे भी मनुष्यों के हित की ही कामना की जा रही है। उन्हें कहा जा रहा है कि वे देवताओं का हित चाहते हैं, अत: उन्हें भी हमारे हित की रक्षा करते हुए हमें बेहतर जीवन देना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि वेद के इसी मर्म को समझ कर उसे जीवन में अपनाएं और मनचाहे तरीके से जीवन जीएं।


सूक्त-39

(कण्व घोर। देवता-मरुत। छंद-बृहती।)

प्रयदित्था परावत: शोचिर्न मानमस्यथ। कस्य क्रत्वा मरुत: कस्य वर्पसा कं याथ कं ह धूतय:।।1
स्थिरा व: सन्त्वायुधा पराणुदे वीलु उत प्रतिष्कभे। युष्माकमस्तु तविषी पनीयसि मा मर्त्यस्य मायिन:।।2
परा ह यत् स्थिरं हथ नरो वर्तयथा गुरु। वि याथन वनिन: पृथिव्या व्याशा: पर्वतानाम्।।3
नहि व: शत्रुर्विविदे अधि द्यवि न भूम्यां रिशादस:। युष्माकमस्तु तविषी तना युजा रुद्रासो नू चिदाधृषे।।4
प्र वेपयन्ति पर्वतान् वि विञ्चन्ति वनस्पतीन्। प्रो आरत मरुतो दुर्मदा इव देवास: सर्वया विशा।।5।।18

अर्थ–हे कंपाने वाले मरुतों! जब आप दूर से धारा के समान अपने तेज को इस स्थान पर फेंकते हैं, तब आप किसके यज्ञ से आकर्षित होकर किसके पास जाते हैं? हे मरुतों! आपके शस्त्र शत्रुओं को नाश करने के लिए स्थिर हों और दढ़तापूर्वक शत्रुओं को रोकें। आपका बल स्तुत्य हो। कपट करने वालों की हमारे निकट प्रशंसा न हो। हे मरुतों! आप वृक्षों को गिराते, पत्थरों को घूमाते और पृथ्वी के नए वृक्षों के मध्य से तथा पर्वतों में छिद्र करके निकल जाते हैं। हे शत्रुनाशक मरुतों! आकाश और पृथ्वी में आपका कोई शत्रु नहीं है। हे रुद्रपुत्रों! आप मिलकर शत्रुओं के दमन के लिए बल बढ़ाइए। वे मरुद्गण पर्वतों को कंपित करके वृक्षों को पृथक-पृथक करते हैं। हे मरुतों! आप मदमस्त के समान प्रजागण के साथ आगे चलिए।


उपो रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं प्रष्टिर्वहति रोहित:। आ वो यामाय पृथिवी चिदश्रोदबीभयन्त मानुषा:।।6
आ वो मक्षू तनाय कं रूद्रा अवो वृणीमहे। गंता नूनं नो स्वसा यथा पुरेत्था कण्वाय बिभ्येषु।।7
युष्मेषितो मरुतो मर्त्येषित आ यो नो अभ्य ईषते। वि तं युयोत शवसा व्योजसा वि युष्माकाभिरूतभि:।।8
असामि हि प्रयज्यव: कण्वं दद प्रचेतस:। असामिभिर्मरुत आ न ऊतिभिर्गन्ता वृष्टिं न विद्युत:।।9
असाम्योजो बिभृथा सुदानवो स्सामि धूतय: शव:। ऋषिद्विषे मरुत: परिमन्यव इषुं न सृजत द्विषम्।।1019

अर्थ–हे मरुतों! आपने बिंदु युक्त मृगों को रथ में जोड़ा है। लाल मृग सबसे आगे जुड़ा है। पृथिवी आपकी प्रतीक्षा करती है। मनुष्य आपसे भयभीत हो गए हैं। हे रूद्र पुत्रों! संतान की रक्षा के लिए हम आपकी स्तुति करते हैं। जैसे आप पूर्वकाल में रक्षा के लिए आए थे, वैसे ही भयभीत यजमान के पास आइए। हे मरुतों! आपके द्वारा सहायता प्राप्त या किसी अन्य द्वारा उकसाया हुआ शत्रु हमारे सामने आए तो आप उसे अपने बल, तेज और रक्षक साधनों द्वारा दूर हटा दीजिए। हे पूजनीय मेधावी मरुतों! आपने कण्व को संपूर्ण ऐश्वर्य दिया था। बिजलियों से वर्षा के निमित्त होने के समान समस्त रक्षण साधनों से युक्त हुए हमें प्राप्त होइए। हे मंगलमय मरुतों! आप अत्यंत तेजस्वी हैं। हे कंपित करने वाले! आप संपूर्ण बलों से युक्त हैं। अत: ऋषि से यूं वैर करने वालों के प्रति अपनी उग्रता को प्रेरित कीजिए


सूक्त-40

(ऋषि-कण्व घोऱ। देवता-ब्रह्मणस्पति। छंद-बृहती।)

उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयंतस्तवेमहे। उप प्र यन्तु मरुत: सुदानव इंद्र प्राशूर्भवा सच।।1
त्वमिद्धि सहस्पुत्र मर्त्य उपब्रूते धने हिते। सुवीर्यं मरुत आ स्वश्व्यं दधीत यो व आचके।।2
प्रैतु ब्रह्मणस्पति: प्र देव्येतु सुनृता। अच्छा वीरं नर्वं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयंतु न:।।3
यो वाधते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रव:। तस्मा इलां सुवीराम यजामहे सुप्रतूतिंमनेहसम्।।4
प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थयम्। यस्मित्रिन्द्रां वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे।।5।।20

अर्थ–हे ब्रह्मणस्पते! उठिए, देवता की कामना करने वाले हम आपकी स्तुति करते हैं। कल्याणकारी मरुद्गण हमारे निकट आएं। हे इंद्र! आप शीघ्र यहां आइए। हे बल के पुत्र ब्रह्मणस्पते! धनी होने पर मनुष्य सुंदर घोड़ों और बल से युक्त ऐश्वर्य को प्राप्त करता है। ब्रह्मणस्पति हमको प्राप्त हों। देवगण पंच हवि से युक्त हमारे यज्ञ में मनुष्यों के हित के लिए आएं। ऋत्विज को उत्तम धन देने वाला यजमान अक्षय धन प्राप्त करता है। उसके लिए हम शत्रु (हिंसक) के द्वारा न मारी जाने वाली इड़ा को यज्ञ में बुलाते हैं। ब्रह्मणस्पति ही शास्त्र सम्मत मंत्र का उच्चारण करते हैं। उस मंत्र में इंद्र, वरुण, मित्र और अर्यमा का वास है।


तमिद् वोचेमा विदधेषु शंभुवं मंत्रं देवा अनेहसम्। इमां च वाचं प्रतिहर्यथा नरो विश्वेद् वामा वो अश्नवत्।।6
को देवयंतमश्नवज् जनं को वृक्तबर्हिषम्। प्रप्र दाश्वान् पस्त्याभिरस्थितास्न्तर्वावत् क्षयं दधे।।7
उप क्षत्र पृञ्चीतहन्ति राजभिर्भये चित् सुक्षितिं दधे। नास्य वार्ता न तरुता महाधने नार्भे अस्ति वज्रिण:।।8।21

अर्थ–हे देवगण! सुखकारक-विघ्ननाशक मंत्र का हम यज्ञ में उच्चारण करें। हे पुरुषों! यदि उस मंत्र रूप वाणी को आप पसंद करते हैं तो हमारे सभी सुंदर वचन आपको प्राप्त हों। देवताओं की कामना करने वाले तथा कुश बिछाने वाले के पास कौन आएगा? निश्चित रूप से देवता ही आएंगे। हविदाता यजमान अन्य मनुष्यों के साथ पशु-पुत्रादि युक्त घर के लिए चल चुका है। ब्रह्मणस्पति अपने बल को बढ़ाकर राजा के साथ होकर शत्रु का नाश करते हैं। वे भय के समय सुख देने वाले होते हैं। वे बज्रधारी युद्ध में किसी से दबते नहीं हैं।



LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here