वेद, खासकर ऋग्वेद में माता लक्ष्मी और माता पार्वती समेत अन्य शक्तियों, यहां तक की दस महाविद्या का जिक्र न के बराबर है। कुछ विद्वानों के हिसाब से बिल्कुल नहीं है। उनके अनुसार जो उस समय के ग्रंथों में दिखता भी है, वह बाद में जोड़ा गया प्रतीत होता है। हां, उस काल में देवी सरस्वती के साथ देवी इला और मही का जिक्र अवश्य आया है। अर्थात मातृशक्ति को महत्व देने का विधान वैदिक काल में भी था। उनका रूप जरूर बदला हुआ था, उन्हें वैदिक मंत्रों में ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है। बल्कि सच तो यह है कि वेद में किसी व्यक्ति विशेष के बदले प्रकृति की शक्तियों के अलग-अलग प्रतीकों की ही उपासना का विधान है। इंद्र, सूर्य, वरुण, मरुद्गण, अग्नि आदि इसके प्रमाण हैं। यह प्रक्रिया बाद में भी सभी धर्म ग्रंथों में बदले संदर्भ और रूपों में नजर आती है। यहां तक कि सभी महापुरुषों समेत दुनिया भर के लगभग सभी सफल लोगों ने अपने जीवन में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन को सर्वाधिक महत्व दिया है। उन्हें इस मूल मंत्र को अपना कर ही चमत्कारिक सफलता हासिल की है। इस कड़ी में ऋग्वेद के सूक्त 13 और सूक्त 14 के मंत्र और उसके अर्थ दिए जा रहे हैं।
सूक्त-13
(ऋषि-मेधातिथि काण्व। देवता-अग्नि। छंद-गायत्री)
सुसमिद्धो न आ वह देवाँ अग्ने हविष्मते। होत: पावक यक्षि च ।।1
मधुमंतं तनूनपाद् यज्ञं देवेषु न: कवे। अद्या कृणुहि वीतये ।।2
नराशंसमिह प्रियमस्मिन् यज्ञ उप ह्वये। मधुजिह्वं हविष्कृतम् ।।3
अग्ने सुखतमे रथे देवाँ ईलित आ वह। असि होता मनुर्हित: ।।4
स्तृणीत वर्हिरानुषग् घृतपृष्ठं मनीषिण:। यत्रामृतस्य चक्षणम् ।।5
वि श्रयंतामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चत:। अद्या नूनं च यष्टवे ।।6।।24
अर्थ–हे समिधावाले अग्नि देव! हमारे यजमान के निमित्त देवताओं को यज्ञ में लाकर उनका पूजन कराइए। हे मेधावी अग्ने! आप शरीर की रक्षा करने वाले हैं, हमारे यज्ञ को देवताओं के उपभोग के लिए प्राप्त कराइए। मनुष्य द्वारा प्रशंसित प्रिय अग्नि को यज्ञ स्थान में बुलाता हूं। हे स्तुत्य अग्ने! आप अत्यंत सुखकारी रथ में देवताओं को यहां लाइए। आप इस यज्ञ में मनुष्य द्वारा होता नियुक्त किए गए हैं। विद्वानों! परस्पर मिली हुई कुशा को घृत पात्र रखने के लिए बिछाइए। आप यज्ञ संपादन के लिए यज्ञशाला के प्रकाशित द्वार को खोलें। वे कपाट अब परस्पर मिले हुए न रहें।
नक्तोषासा सुपेशसा स्स्मिन् उप यज्ञ ह्वये। इदं नो बर्हिरासदे ।।7
ता सुजिह्वा उप ह्वये होतारा दैव्याकवी। यज्ञं नो यक्षतामिमम् ।।8
इला सरस्वती मही तिस्रो देवीर्मयोभुव:। बर्हि सीदंत्वतस्रिध: ।।9
इह त्वष्टारमग्रियं विश्वरूपमुप ह्वये। अस्माकमस्तु केवल: ।।10
अव सृजा वनस्पते देव देवेभ्यो हवि:। प्र दातुरस्तु चेतनम् ।।11
स्वाहा यज्ञं कृणोतनेंद्राय यज्वनो गृहे। तत्र देवाँ उप ह्वये ।।12।।25
अर्थ–सुंदर लगने वाली रात्रि को और दिन को कुशासन पर बैठने के लिए बुलाता हूं। उस सुंदर जिह्वा वाले, मेधावी दोनों होताओं (अग्नि और सूर्य) को यज्ञ में यजन कार्य के लिए बुलाता हूं। इला, सरस्वती और मही ये तीनों देवियां सुख देने वाली हैं, वे इस कुशासन को ग्रहण करें। हे अग्रगण्य, विविध रूप वाले त्वष्टा (अग्नि) का इस यज्ञ में आह्वान करता हूं, वे हमारे ही रहें। हे वनस्पति देव! यजमान को ज्ञान देने के निमित्त देवगण के लिए हवि समर्पण करें। हे ऋत्विजों! यजमान के घर में स्वाहा करते हुए इंद्र के लिए यज्ञ करें। उसमें हम देवताओं का आह्वान करते हैं।
सूक्त-14
(ऋषि-मेधातिथि। देवता-विश्वदेवा। छंद-गायत्री)
एभिरग्ने दुवो गिरो विश्वेभि: सोमपीतये। देवेभिर्याहि यक्षि च ।।1
आ त्वा कण्वा अहूषत गृणन्ति विप्र ते धिय:। देवेभिरग्न आ गहि ।।2
इंद्रवायु बृहस्पति मित्राग्निं पूषणं भगम्। आदित्यान् मारुतं गणम् ।।3
प्र वो भ्रियंत इंदवो मत्सरा मादयिष्णव:। द्रप्सा मध्वश्चमूषद: ।।4
ईलते त्वामवस्यव: कण्वासो वृक्तबर्हिष:। हविष्मन्तो अरंकृत: ।।5
घृतपृष्ठा मनोयुजो ये त्वा वहन्ति वह्न्य। आ देवान्त्सोमपीतये ।।6।।26
अर्थ–हे अग्ने! इन देवताओं को साथ लेकर सोम पीने के लिए आइए। हमारी पूजा और स्तुतियां आपको प्राप्त हों। हमारे यज्ञ में देवताओं की पूजा करें। हे अग्ने! आपको कण्व वंशीय बुलाते रहे हैं। वे अब भी आपके गुण गाते हैं। आप देवताओं के सहित आइए। वायु, बृहस्पति, मित्र, अग्नि, पूषा, भग, आदित्य और मरुद्गण का आह्वान करें। तृप्त करने वाले प्रसन्नता पात्रों में ढके बिंदु रूप सोम यहां उपस्थित हैं। कण्व वंशीय आपसे रक्षा की याचना करते हुए कुश बिछाकर हव्यादि सामग्री से युक्त होकर आपका स्तवन करते हैं। आपकी इच्छा मात्र से रथ में जुडऩे वाले अश्व आपको ले जाते हैं। आप सोमपान के निमित्त यहां आइए।
तान् यजत्राँ ऋतावृधो ह्यग्ने पत्नीवतस्कृधि। मध्व: सुजिह्व पायय ।।7
ये यजत्रा य ईड्यास् ते ते पिबन्तु जिह्वया। मधोरग्ने वषट्कृति ।।8
आकीं सूर्यस्य रोचनाद् विश्वान्देवाँ उषर्बुध:। विप्रो होतेह वक्षति ।।9
विश्वेभि: सोम्यं मध्व ह्यग्न इंद्रेण वायुना। पिबा मित्रस्य धामभि: ।।10
त्वं होता मनुर्हितो ह्यग्ने यज्ञेषु सीदसि। सेमं नो अध्वरं यज ।।11
युक्ष्वा ह्यरुषी रथे हरितो देव रोहित:। ताभिर्देवाँ इहा वह ।।12।।27
अर्थ–हे अग्ने! उन पूज्य तथा यज्ञ को बढ़ाने वाले देवताओं को पत्नी सहित मधुर सोमरस का पान कराइए। हे अग्ने! पूज्य और स्तुत्य देवगण आपकी जिह्वा के मधुर सोमरस का पान करें। हे मेधावी अग्नि रूप होता! प्रात:काल जगने वाले विश्वदेवताओं को सूर्यमंडल से पृथक कर यहां ले आइए। हे अग्ने! आप मित्र, इंद्र एवं वायु के तेज सहित सोमरस का पान करें। हे अग्ने! हमारे द्वारा प्रतिष्ठित होता रूप आप यज्ञ में विराजमान हैं, अत: इस यज्ञ को संपन्न करें। हे अग्ने! आप स्वर्णिम और रक्त वर्ण वाले अश्वों को अपने रथ में जोतकर देवताओं को यज्ञ में ले आइए।