अधिकतर लोग हर पल तमाम आशंकाओं को ओढ़े डरे-डरे से जीवन गुजारते हैं और अंत में पछताते हैं कि हाय, ये क्या किया? कर्म करते समय ही यदि उचित-अनुचित का विचार कर लिया जाए तो बाद में पछताने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी। एक मित्र ने इसी संबंध में एक प्रेरक कथा भेजी है, जो आप सबसे साझा कर रहा हूं।
एक पंडित जी पूजा करा रहे थे। लोग हाथ जोड़े बैठे थे। पूजा के बाद बारी आई हवन की। पंडित जी ने सबको हवन में शामिल होने के लिए बुलाया। सबके सामने हवन सामग्री रख दी गई। पंडित जी मंत्र पढ़ते और कहते, “स्वाहा”। जैसे ही पंडित जी स्वाहा कहते, लोग चुटकियों से हवन सामग्री लेकर अग्नि में डाल देते। बाकी लोगों को अग्नि में हवन सामग्री डालने की ज़िम्मेदारी दी गई थी और घर के मालिक (जो पूजा कर रहे थे) को स्वाहा कहते ही अग्नि में घी डालने की ज़िम्मेदीरी सौंपी गई। कई बार स्वाहा-स्वाहा हुआ। मैं भी हवन सामग्री अग्नि में डाल रहा था। मैंने नोट किया कि हर व्यक्ति थोड़ी सामग्री डालता, इस आशंका में कि कहीं हवन खत्म होने से पहले ही सामग्री खत्म न हो जाए। गृह मालिक भी बूंद-बूंद घी डाल रहे थे। उनके मन में भी डर था कि घी खत्म न हो जाए। मंत्रोच्चार चलता रहा, स्वाहा होता रहा और हवन पूरा हो गया। मैंने देखा कि जो लोग इस आशंका में हवन सामग्री बचाए बैठे थे कि कहीं कम न पड़ जाए, उन सबके पास बहुत सी हवन सामग्री बची रह गई। घी तो आधा से भी कम इस्तेमाल हुआ था। हवन पूरा होने के बाद पंडित जी ने सभी लोगों से कहा कि आप लोगों के पास जितनी सामग्री बची है, उसे भी अग्नि में पूर्णाहुति के समय एक साथ ही डाल दें। गृह स्वामी से भी उन्होंने कहा कि आप इस घी को भी कुंड में डाल दें। एक साथ बहुत सी हवन सामग्री अग्नि में डाल दी गई। सारा घी भी अग्नि के हवाले कर दिया गया। अब पूरा घर धुंए से भर गया। वहां बैठना मुश्किल हो गया। एक-एक कर सभी कमरे से बाहर निकल बाहर तेज धूप में खड़े हो गए। अब सभी कह रहे थे कि बेकार ही हवन सामग्री हमने बचाई थी। सही अनुपात में हवन के समय डाल दिए होते तो कमरे में धुंआ नहीं फैलता। घी को भी बचाने की जगह सही अनुपात में खर्च करना चाहिए था। खैर, अब जब तक सब कुछ जल नहीं जाता, कमरे में जाना संभव नहीं था। हम सभी लोग गर्मी में कमरे से बाहर खड़े इंतजार करते रहे। काफी देर तक हमें इंतज़ार करना पड़ा, सब कुछ स्वाहा होने के इंतज़ार में।
बस यह कहानी यहीं रुक जाती है। कल मैं सोच रहा था कि उस पूजा में मौजूद हर व्यक्ति जानता था कि जितनी हवन सामग्री उसके पास है, उसे हवन कुंड में ही डालना है। पर सबने उसे बचाए रखा। सबने बचाए रखा कि आख़िर में सामग्री काम आएगी। ऐसा ही हम करते हैं। यही हमारी फितरत है। हम अंत के लिए बहुत कुछ बचाए रखते हैं। हम समझ ही नहीं पाते कि हर पूजा (कर्म का अवसर रूपी जीवन) खत्म होनी होती है। हम ज़िंदगी जीने की तैयारी में ढेरों चीजें सही-गलत का विचार किए बिना जुटाते रहते हैं, पर उनका इस्तेमाल नहीं कर पाते और न जरूरतमंद को लेकर उसका सदुपयोग करते हैं। हम कपड़े खरीद कर रखते हैं कि फलां दिन पहनेंगे। फलां दिन कभी नहीं आता। हम पैसों का संग्रह करते हैं ताकि एक दिन हमारे काम आएगा। वो एक दिन नहीं आता। ज़िंदगी रूपी पूजा खत्म हो जाती है और हवन सामग्री बची रह जाती है। हम बचाने में इतने खो जाते हैं कि हम समझ ही नहीं पाते कि जब सब कुछ होना हवन कुंड के हवाले है, उसे बचा कर क्या करना? बाद में तो वो सिर्फ धुंआ ही देगा। अगर ज़िंदगी की हवन सामग्री का इस्तेमाल हम पूजा के समय सही अनुपात में करते चले जाएं, तो न धुंआ होगा, न गर्मी। न आंखें जलेंगी, न मन। ध्यान रहे, संसार हवन कुंड है और जीवन पूजा। एक दिन सब कुछ हवन कुंड में समाहित होना है। अच्छी पूजा वही होती है, जिसमें हवन सामग्री का सही अनुपात में, सही समय पर और सही जगह इस्तेमाल हो जाता है।