emancipation is important for the attainment of god : ईश्वर की प्राप्ति के लिए अहम से मुक्ति जरूरी। यह संदेश विभिन्न तरीकों से दिया गया है। धर्म ग्रंथों से लेकर ऋषि-मुनियों तक की बातों में यही संदेश है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि सब कुछ मुझे अर्पण कर। खुद को भी मुझे समर्पित कर दे। सुनने में यह सरल लगता है। वास्तव में है अत्यधिक कठिन। लोक कथाएं भी ऐसा ही संदेश देती हैं। इसी विषय पर प्रस्तुत है एक लोक कथा। उसमें जीवन और अध्यात्म का सार है। यदि इसे ठीक से समझा जाए तो धर्मगुरुओं के पीछे भागने की जरूरत नहीं रहेगी। यह कथा है अहम का त्याग। इसमें मुक्ति के लिए व्यग्र एक राजा के संघर्ष की कहानी है।
धर्मज्ञ राजा के संघर्ष की कथा
एक यशस्वी व धर्मज्ञ राजा थे। उन्होंने कई लड़ाइयां जीतीं। राज्य का काफी विस्तार किया। प्रजा को अपनी संतान मानकर हर तरह से खुशहाल रखा। उम्र बढने के साथ-साथ उनमें अध्यात्म की तड़प बढ़ती गई। वह जन्म-जन्मांतर के चक्र से मुक्ति चाहते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो परमात्मा को पाना चाहते थे। इसी क्रम में ऋषि के आश्रम में गए। उन्होंने ऋषि से अपने मन की बात बताई। ऋषि ने कहा कि परमात्मा के पाने के लिए पहले अपना सर्वस्व छोड़ना पड़ता है। क्या आप अपना सब कुछ छोड़ सकते हैं? अगर आप ऐसा करें तो परमात्मा को पाना सरल है। राजा ने कहा कि मैं तत्काल सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार हूं। उन्होंने ईश्वर की प्राप्ति के लिए अपना राजपाट पुत्र को सौंपा। सारी निजी संपत्ति गरीबों में बांट दी। फिर प्रसन्न मन से ऋषि के पास पहुंचे।
सब कुछ दान दिया, पर अहम छोड़ न सके
ऋषि ने उन्हें देखते ही समझ लिया। राजा ने संपत्ति व सत्ता तो छोड़ी, पर अहम शेष है। सब दान करने का भाव उनमें है। उन्होंने कहा, अरे तुम तो सब कुछ साथ ले आए हो! परमात्मा को पाने के लिए तुम्हें मेहनत करनी होगी। खुद को बदलना होगा। राजा की समझ में कुछ नहीं आया। फिर भी वे शांत रहे। ऋषि ने उनसे कहा कि तुम्हारे जिम्मे आश्रम का कूड़ा-करकट फेंकने का काम रहेगा। शिष्यों को यह आदेश बड़ा कठोर लगा। किंतु ऋषि ने कहा, सत्य को पाने के लिए राजा अभी पात्र नहीं हैं। उन्हें इसके लिए तैयार करना जरूरी है। राजा कूड़ा फेंकने का काम मन से करने लगे। कुछ दिन बाद शिष्यों ने कहा कि अब तो उन्हें इस काम से मुक्त कीजिए। ऋषि ने कहा कि पहले परीक्षा होगी। देखना होगा कि वह पात्र बने हैं या नहीं।
ऋषि ने ली राजा के अहम की परीक्षा
अगले दिन राजा कचरे की टोकरी सिर पर लेकर जाने लगे। ऋषि ने एक शिष्य को उनके पीछे लगा दिया। शिष्य ने देखा कि एक आदमी रास्ते में राजा से टकरा गया। इससे कूड़ा बिखर गया। राजा थोड़े नाराज हुए। वे बोले, अंधे तो नहीं लगते, फिर कैसे टकरा गए? इसके बाद उन्होंने कूड़ा समेटा और आगे बढ़ गए। शिष्य ने ऋषि को सारी बात बताई। ऋषि ने कहा कि अभी राजा का मैं खत्म नहीं हुआ है। कुछ दिन बाद फिर राजा से कोई राहगीर टकराया। इस बार राजा ने उसे देखा, पर कहा कुछ नहीं। आंखों में जरूर रोष का भाव था। ऋषि को इसकी जानकारी मिली। उन्होंने कहा, संपत्ति छोड़ना आसान है, पर मैं छोड़ना बेहद कठिन। तीसरी बार फिर यही घटना हुई। इस बार राजा ने बिखरे कूड़े को बटोरा और चुपचाप आगे बढ़ गया। लगा जैसे कुछ हुआ ही न हो।
राज ने परीक्षा पास की, ऋषि ने कहा अब प्रभु पाने के अधिकार
ऋषि बोले, अब यह तैयार है। जो मैं को छोड़ता है, वही ईश्वर की प्राप्ति के लिए अधिकारी होता है। परमात्मा को पाना है तो स्वयं को छोड़ दो। परमात्मा सबसे बड़ा सत्य है। मैं का भाव सबसे बड़ा असत्य। दोनों कभी एक साथ रह ही नहीं सकता। जब तक मनुष्य में मैं का भाव अर्थात असत्य का भाव रहता है, वह सत्य को कैसे देख सकेगा, उसे कैसे महसूस कर सकेगा? यदि अध्यात्म के पथ पर चलना हो तो मैं के त्याग का निरंतर अभ्यास करें। श्रीकृष्ण एवं शंकराचार्य ने इसके लिए सरल अभ्यास बताया है। किसी भी काम को करते समय कर्ता भाव का त्याग करें। कर्ता भाव का त्याग करेंगे तो न फल की इच्छा शेष रहेगी और न उसे भोगना पड़ेगा। वास्तव में वही मुक्ति का द्वार है। कर्ता भाव समाप्त होने के बाद ही कर्मफल से मुक्त संभव है।
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