meditation is contemplation of mahadev : महादेव का चिंतन ही ध्यान, उसी से मोक्ष संभव है। शिव का ध्यान सच्चे मन और समर्पण से किया जाए। फिर कोई कारण नहीं कि प्राणी मोक्ष को न पा ले। ऋषियों ने भी कहा है कि ‘ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतसं। अर्थात- चांदी के पर्वत समान जिनकी श्वेत कांति है। जो सुंदर चंद्रमा को आभूषण रूप से धारण करते हैं। उन भूतभावन भगवान महेश्वर का प्राणी प्रतिदिन ध्यान करे। महेश्वर भोलेनाथ ध्येय हैं। उनका चिंतन ही ध्यान है। मोक्ष ही प्राणी मात्र के जीवन का प्रायोजन है। इसे जानने वाला ही शिवत्व को प्राप्त कर सकता है। भूतभावन जगत के परम कारक, विश्वात्मा तथा विश्वरूप कहे गए हैं। ब्रह्म अर्थात रूद्र का पर्याय आनंद है। इस संपूर्ण जगत को ब्रह्म व्याप्त समझकर उन्हीं का ध्यान तथा चिंतन करना चाहिए। भगवान भोलेनाथ और उनका कोई भी नाम समस्त संसार के मंगलों का मूल है।
शिव के तीन प्रमुख नाम व तीन नेत्र
शिव, शंभू और शंकर उनके तीन मुख्य नाम हैं। इन तीनों का अर्थ है कल्याण की जन्मभूमि, संपूर्ण रूप से कल्याणमय और परम शांतिमय। इनके नाम लेने से ही कल्याण हो जाता है। भोलेनाथ को त्रिनेत्र भी कहा गया है। ये तीन नेत्र सूर्य, चंद्र एवं वहनी है। शिव केवल नाम ही नहीं है। ब्रह्मांड की प्रत्येक हलचल, परिवर्तन, परिवर्धन आदि में उनके सर्वव्यापी स्वरूप के दर्शन होते हैं। जगत के तापों को हरने के लिए उन्होंने अपनी जटा में गंगा को स्थान दिया है। वे जगत का भरण-पोषण के लिए माता अन्नपूर्णा से भिक्षा भी मांगते हैं। ऐसे में उनका चिंतन अत्यंत कल्याणकारी है। जरूरत है कि चिंतन में सिर्फ वही हों। ऐसी ही स्थिति में साधक ध्यानस्थ हो जाता है। तब कहा जाता है कि महादेव का चिंतन ही ध्यान है।
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दृढ़ इच्छाशक्ति से ही लक्ष्य प्राप्ति
जब हम विषम परिस्थितियों से घिर जाते हैं। मन विचलित होकर वहां से निकलने की कोशिश करता है। ऐसे में सहज व सरल रास्ता खोजता है। ऐसे रास्ते सदैव दलदल से भरे होते हैं। उस पर चलते ही हम उसमें और फंसते जाते हैं। बड़े लक्ष्य पाने के लिए इच्छाशक्ति दृढ़ बनानी होगी। उसके लिए स्वयं साधक, साधन और साधना का सृजन करना होगा। ठीक इसी प्रकार प्राणी को शिव के वास्तविक रूप के दर्शन के लिए कड़ा प्रयत्न करना होगा। शिव का वास्तविक रूप परम ज्योति है। वह इन वाह्य चक्षुओं द्वारा देखा नहीं जा सकता। उसे केवल अनुभव किया जा सकता है। दिव्य चक्षु जिसे शास्त्रों में आलौकिक नेत्र, ज्ञान चक्षु, त्रिनेत्र या शिव नेत्र कहा गया है, के द्वारा ही उनका दर्शन किया जा सकता है। शिव के वाह्य ज्योतिर्लिंगों की पूजा के बाद भी साधकों के लिए हृदस्थ परमब्रह्म की अनुभूति परम आवश्यक है। वह साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है।
महादेव का चिंतन ही ध्यान
शिव को पाने के लिए सिर्फ उनका हमेशा ध्यान ही जरूरी है। आज भी शिव भक्त कठिन परिस्थितियों के बावजूद उन्हें ढूंढने कैलास तक पहुंच जाते हैं। पूरे श्रावण मास तक चलने वाली सुल्तानगंज से देवघर की पैदल यात्रा इसका छोटा उदाहरण है। देश भर में इस अवधि में भक्तजन ऐसी कई यात्राएं करते हैं। वे गंगा समेत पवित्र नदियों का जल लेकर भोलेनाथ को अर्पित करते हैं। जाहिर है कि शिव की भक्ति के कारण ऐसा करते हैं। उनकी आस्था को समझा और महसूस किया जा सकता है। जरूरत है इसे सिर्फ दिशा देने की। अपने दैनिक कामकाज के दौरान भी यदि नित शिव में चित्त लगा रहे तो यह चिंतन हो गया। जब व्यक्ति लगातार ऐसी स्थिति में रहेगा तो वह ध्यानस्थ हो जाएगा। ऐसी ही स्थिति को महादेव का चिंतन ही ध्यान है, कहा गया।
साभार- डॉ. राजीव रंजन ठाकुर
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