सृष्टि का विज्ञान है वेद-3

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ऋग्वेद के तीसरे और चौथे सूक्त में इंद्र, अश्विद्वय, विश्वदेवता और सरस्वती की महिमा का जमकर गुणगान किया गया है। ऋग्वेद में देवियों में सरस्वती को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। हालांकि उस दौरान भी उनकी मान्यता ज्ञान की देवी के रूप में ही थी। एक और खास बात है कि इन मंत्रों से यह स्पष्ट होता है कि वेद में वर्णित सोम नशा आदि नहीं, बल्कि बल बढ़ाने वाला था। इंद्र को इसके सेवन से मजबूत होने की बात कही गई है। उन सबकी प्रार्थना करते हुए उनसे अपेक्षा की गई है कि बदले में वे भी स्तुति करने वालों की रक्षा करें और उन्हें समृद्ध बनाएं। इसमें भी किसी तरह के आडंबर की बू नहीं है। जो कहा जा रहा एवं दिया जा रहा है वह बिल्कुल साफ है। बदले में मंत्र कहने वाले की मांग भी दो टूक अंदाज में ही है। देखें ऋग्वेद के सूक्त तीन और चार के मंत्र और अर्थ–


सूक्त-3

(ऋषि-मधुच्छंदा वैश्वामित्र:। देवता-अश्विनौ, इंद्र, विश्वदेव, सरस्वती। छंद-गायत्री।)

अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती। पुरुभुजा चनस्यतम् ।।1।।

अश्विना  पुरुदंससा  नरा शवीरया धिया। धिष्ण्या वनतं गिर: ।।2।।

दस्रा युवाकव: सुता  नासत्या वृक्तबर्हिष:। आ यातं रुद्रवर्तनी ।।3।।

इंद्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायव:। अण्वीभिस्तना पूतास: ।।4।।

इंद्रा याहि धियेषितो विप्रजूत: सुतावत:। उप ब्रह्माणि वाघत: ।।5।।

इंद्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिव:। सुते दधिष्व नश्चन: ।।6।।5

अर्थ–हे बड़े बाहु वाले, शुभ कर्मों के संपादक द्रुत कार्यकारी अश्विद्वय! यज्ञ के इस अन्न से तृप्त होइए। हे अग्निदेव! आप विभिन्न कर्मों को संपन्न करने वाले धैर्य और बुद्धि हैं। अत: हमारी प्रार्थना पर ध्यान दीजिए। हे शत्रु संहारक वीरों! आप असत्य से बचने वाले दुर्घर्ष मार्ग पर चलने वाले हैं। इस छाने हुए सोम रस को पीने के लिए यहां आइए। हे कांतिमान इंद्र! दसों अंगुलियों से सिद्ध किए पवित्रतापूर्वक आपके निमित्त रखे इस सोम के लिए यहां आओ। हे इंद्र! बुद्धियों से प्रार्थना किए हुए आप सोम को सिद्ध करने वाले स्तोता के स्तवन से उसे प्राप्त होइए। हे अश्वयुक्त इंद्र! आप हमारी प्रार्थना सुनने के लिए शीघ्र यहां आइए और यज्ञ में हमारी हवियों को ग्रहण कीजिए।


ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत। दश्वांसो दाशुष: सुतम् ।।7।।

विश्वे  देवासो अप्तुर: सुतमा गंत तूर्णय:। उस्रा  इव स्वसराणि ।।8।।

विश्वे देवासो अस्रिध  एहिमायासो  अद्रुह:। मेधं  जुषंत वह्नय: ।।9।।

पावका  न: सरस्वती  वाजेभिर्वाजिनीवती। यज्ञं  वष्टु धियावसु: ।।10।।

चोदयित्री  सूनृतानां  चेतंती  सुमतीनाम्। यज्ञं   दधे  सरस्वती ।।11।।

महो अणर्: सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धियो विश्वा वि राजति ।।12।।6

अर्थ–हे विश्वदेवताओं! आप रक्षक, धारण और दाता हैं। अत: इस हविदाता के यज्ञ को प्राप्त होइए। हे विश्वदेवताओं! आप कर्मवान और शीघ्रता करने वाले हैं। आप सूर्य की किरणों के समान ज्ञान (प्रकाश) प्रदान करने के लिए आइए। हे विश्वदेवताओं! आप किसी से भी न मारे जाने वाले, चतुर निर्भीक तथा सुख-साधक हैं। हमारे यज्ञ में आकर अन्न ग्रहण कीजिए। हे पवित्र करने वाली सरस्वती आप बुद्धि द्वारा अन्न-धन को देने वाली हैं। हमारे इस यज्ञ को सफल करें। सत्य कर्मों की प्रेरक उत्तम बुद्धि को प्रशस्त करने वाली सरस्वती! आप हमारे यज्ञ को धारण करने वाली हैं। सरस्वती विशाल ज्ञान-समुद्र को प्रकट करने वाली हैं। यही सब बुद्धियों को ज्ञान की ओर प्रेरित करती है।


सूक्त 4 (द्वितीय अनुवाक)

(ऋषि-मधुच्छंदा। देवता-इंद्र। छंद-गायत्री)

सुरूपकृत्नुमूतये   सुदुघामिव  गोदुहे।  जुहूमसि   द्यविद्यवि ।।1।।

उप न: सवना गहि सोमस्य सोमपा: पिब। गोदा इद् रेवतो  मद: ।।2।।

अथा ते अंतमानां विद्याम सुमतीनाम्। मा नो अतिख्य आ  गहि ।।3।।

परेहि विग्रमस्तृतमिंद्रं पृच्छा विपश्चितम्। यस्ते सखिभ्य आ वरम् ।।4।।

उत  ब्रुवंतु  नो  निदो  निरयंतश्चिदारत। दधाना  इंद्र  इद्  दुव: ।।5।।7

अर्थ–दोहन के लिए गाय को बुलाने वाले के समान अपनी रक्षा के लिए हम उत्तमकर्मा इंद्र का आह्वान करते हैं। हे सोमपायो इंद्र! सोमपान के लिए हमारे यज्ञ के पास आइए। आप ऐश्वर्यवान् प्रसन्न होकर हमें गाय आदि धन देते हैं। आपसे निकट संपर्क में रहने वाले बुद्धिमानों के आश्रय में रहकर हम आपको जाने। आप हमारे विरुद्ध न होइए, हमें प्राप्त होइए। हे मनुष्यों! तुम अपराजित, कर्मवान इंद्र के पास जाकर अपने बांधवों के लिए श्रेष्ठ ऐश्वर्य को प्राप्त करो। इंद्र के उपासक उसी की उपासना करते हुए इंद्र के निंदकों को देश से दूर जाने के लिए कहें, जिससे वे दूर से भी दूर भाग जायें।


उत न सुभगां अरिर्वोचेयुर्दस्म  कृष्टय:। स्यामेदिंद्रस्य  शर्मणि ।।6।।

एमाशुमाशवे  भर  यज्ञश्रियं  नृमादनम्। पतयन्  मंदयत्सखम् ।।7।।

अस्य पीत्वा शतक्रतो घनो वृत्राणामभव:। प्रावो वाजेषु वाजिनम् ।।8।।

तं त्वा वाजेषु वाजिनं  वाजयाम: शतक्रतो। धनानामिंद्र  सातये ।।9।।

यो रायो वनिर्महान्त्  सुपार: सुवंत: सखा। तस्मा इंद्राय गायत ।।10।।8

अर्थ–हे शत्रुनाशक इंद्र! आपके आश्रय में रहने से शत्रु और मित्र सभी हमको ऐश्वर्यवान बनाते हैं। यज्ञ को शोभित करने वाले, आनंदप्रद, प्रसन्नतादायक तथा यज्ञ संपन्न करने वाले सोम को इंद्र के लिए अर्पित करो। हे सैकड़ों यज्ञ वाले इंद्र! इस सोमपान से बलिष्ट हुए आप दैत्यों के नाशक हुए। इसी के बल से आप युद्धों में सेनाओं की रक्षा करते हैं। हे शतकर्मा इंद्र! युद्धों में बल प्रदान करने वाले आपको हम ऐश्वर्य के निमित्त हविष्यान्न भेंट करते हैं। धन रक्षक, दुखों को दूर करने वाले, यज्ञ करने वालों से प्रेम करने वाले इंद्र की स्तुतियां गाओ।



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