सृष्टि का विज्ञान है वेद-13

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“जब मैं सौर तंत्र को देखता हूं, तो पाता हूं कि गर्मी और प्रकाश की उचित मात्रा पाने के लिए पृथ्वी सूर्य से सही दूरी पर है। यह संयोग नहीं हो सकता।”–आइजैक न्यूटन


न्यूटन की उक्त बात इसका प्रमाण है कि ब्रह्मांड में कुछ भी निरर्थक नहीं है। हर चीज, घटना व दृश्य का कोई न कोई अर्थ अवश्य होता है। कोई घटना अनायास नहीं घटती है। आसानी से समझ न पाने के कारण अधिकांश लोग इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। कोई तो शक्ति है जिसने सबका निर्माण किया और उसे नियंत्रित करने के लिए फुल प्रूफ सिस्टम तैयार किया है। पहले ऋषि-मुनि वेद के माध्यम से प्रकृति के इसी रहस्य की व्याख्या कर जीवन जीने का संतुलित तरीका बताते थे। अब वैज्ञानिक, डॉक्टर मनोचिकित्सक भी बदले रूप में वही काम कर रहे हैं। अंतर है कि पहले अंदर को मजबूत कर बाहर ठीक किया जाता था, अब सर्वाधिक जोर बाहर को ठीक करने पर है। इस वजह से इंसान अंदर से खोखला होता जा रहा है।



दुर्भाग्य से बदलते समय के साथ जहां वैज्ञानिक और कथित रूप से वैज्ञानिक सोच वाले अपने विचारों को सही साबित करने के प्रति दुराग्रही होते गए। अपने को सत्य साबित करने के लिए उन्होंने न सिर्फ भगवान जैसी अलौकिक शक्ति को भ्रम करार देना शुरू किया, बल्कि प्राचीन परंपरा का भी मजाक उड़ाने लगे। दूसरी ओर ऋषि परंपरा की समाप्ति के बाद धर्म व कर्मकांड के नाम पर अधिकतर लोग धंधा करने लगे। शोध का काम बंद हो गया, अध्ययन-अध्यापन की कमी के कारण धार्मिक कृत्य व कर्मकांड के नाम पर किस्से-कहानियों का दौर शुरू हो गया।


ऋग्वेद के सूक्त 26 और 27 के अवलोकन से भी स्पष्ट है कि उस दौर में स्वयं अग्नि ही यज्ञों को संपन्न करने में सक्रिय भूमिका निभाते थे। अन्य विभिन्न ग्रंथों के अध्ययन से भी सप्ष्ट होता है कि उस दौर में यज्ञ के लिए अग्नि मंत्रों के बल पर स्वयं प्रज्ज्वलित हो जाती थी। आहूतियां लेने के लिए स्वयं देवता आते थे। अब सिर्फ उनकी कहानियां बची हैं। मौजूदा समय में अधिकतर पूजा-पाठ कथाओं पर एवं कर्मकांड कहानियों पर आधारित हैं। परिणामस्वरूप न तो खुद अग्नि प्रज्जवलित करने की किसी में ताकत बची न मंत्रों में पहले जैसा असर नजर आता है।


सूक्त-26

(ऋषि-शुन शेप आजीगर्ति। देवता-अग्नि। छंद-गायत्री)

वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जां पते। सेमं नो अध्वरं यज ।।1
नि नो होता वरेण्य: सदा यविष्ठ मन्मभि:। अग्ने दिवित्मता वच: ।।2
आ हि ष्मा सूनवे पितापिर्यजत्यापये। सखा सख्ये वरेण्य: ।।3
आ नो बर्ही रिशादसो वरुणो मित्रो अर्यमा। सीदन्तु मनुषो यथा ।।4
पूर्व्य होतरस्य नो मन्दस्व सख्यस्य च। इमा उ षु श्रुधी गिर: ।।5।।20

अर्थ–हे पूज्य, योग्य बली अग्ने! आप अपने तेज रूप वस्त्र को धारण कर हमारे यज्ञ की संपन्न कीजिए। हे अग्ने! आप सतत, युवा, उत्तम और तेजस्वी हैं। इस यजमान के स्तुति वचनों से प्रतिष्ठित होइए। हे वरणीय अग्ने! जैसे पिता पुत्र को, भाई भाई को तथा मित्र मित्र को वस्तुएं देते हैं, वैसे ही आप हमारे दाता बनिए। शत्रुओं को मारने वाले वरुण, मित्र और अर्यमा मनुष्यों के समान कुशों पर विराजमान हों। हे पुरातन होता! आप इस यज्ञ और हमारे मित्र भाव से प्रसन्न होइए। हमारी स्तुतियों को अच्छी तरह से सुनिए।


यच्चिद्धि   शश्वता  तना   देवंदवं  यजामहे।  त्वे  इद्भुयते  हवि: ।।6
प्रियो नो अस्तु विश्वपतिर्होता मन्द्रो वरेन्य:। प्रिया: स्वग्नयो वयम् ।।7
स्वग्नयो  हि  वार्यं  देवासो  दधिरे  च  न:।  स्वग्नयो  मनामहे ।।8
अथा  न   उभयेषाममृत   मर्त्यानाम्।  मिथ:  सन्तु   प्रशस्तय: ।।9
विश्वेभिरग्ने  अग्निभिरिमं  यज्ञमिदं  वच:। चनो  धा: सहसो यहो ।10।।21

अर्थ–हे अग्ने! नित्य प्रति विभिन्न देवताओं को पूजते हुए भी हम आपको ही हवि अर्पित करते हैं। वे अग्नि विश्व के स्वामी और होता हैं। हम शोभायुक्त अग्नि वाले होकर उनके प्रिय बनें। शोभनीय अग्नि सहित देवताओं ने जैसे हमारे लिए ऐश्वर्य धारण किया है, वैसे ही हम सुंदर अग्नि से युक्त हुए आपको पूजते हैं। हे मरण धर्म रहित अग्ने! आपकी ओर हम मरणशील मनुष्यों की प्रशंसायुक्त वाणियां परस्पर स्नेह वाली हों। हे बल पुत्र अग्ने! आप सब अग्नियों से युक्त हुए हमारी वाणियों से प्रसन्न होइए।


सूक्त-27

(ऋषि-शुन शेप आजीगर्ति। देवता-अग्नि, विश्वदेवा। छंद-गायत्री त्रिष्टुप)

अश्वं न त्वा वारवन्तं वंदध्या अग्निं नमोभि:। सम्राजन्तमध्वराणाम् ।।1
स घा न: सूनु: शवसा पृथुप्रगामा सुशेव:। मीद्वां अस्माकं बभूयात् ।।2
स नो  दूराच्चासाच्च नि  मर्त्यादधायो:। पाहि  सदमिद्  विश्वायु: ।।3
इममू षु त्वमस्माकं सनिं सायत्रं नव्यांसम्। अग्ने  देवेषु प्रो वोच: ।।4
आ नो भज  परमेष्वा  वाजेषु। मध्यमेषु। शिक्षा वस्वो अन्तमस्य ।।5।।22

अर्थ–हे अग्ने! आप बालों वाले अश्व के समान हैं। यज्ञों के सम्राट समान प्रतिष्ठित अग्नि की स्तुतियों द्वारा पूजन के लिए मैं उपस्थित हूं। वह बल के पुत्र विस्तीर्ण गमन शक्ति वाले, शोभनीय सुख के ज्ञाता, अभीष्ट वर्षक अग्नि हमारे हों। हे सर्वत्र गमनशील अग्ने! आप हमको दूर या पास से भी पाप करने की इच्छा वाली से सदा बचाते रहिए। हे अग्ने! हमारे इस हवि दान और नवीन स्तोत्र को देवताओं के सम्मुख उत्तम प्रकार से वर्णन कीजिए। अग्ने! हमको उत्तम लोक प्राप्त कराइए। मध्य लोक में होने वाले अन्नों में हमें भागी बनाइए और समीपस्थ धनों को हमें प्रदान कीजिए।


विभक्तासि  चित्रभानो सिंधोरूर्मा उपाक आ। सद्यो दाशुषे क्षरसि ।।6
यमग्ने  पृत्सु  मर्त्यमवा वाजेषु यं जुना:। य यन्ता  शश्वतीरिष: ।।7
नकिरस्य  सहन्त्य  पर्येता कयस्य चित्। वाजो अस्ति  श्रवाय्य: ।।8
स  वाजं  विश्वचर्षणिरर्वद्भिरस्तु  तरुता।  विप्रेभिरस्तु  सनिता ।।9
जराबोध तद् विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय। स्तोमं रुद्राय दृशीकम् ।।10।।23

अर्थ–हे विभिन्न सामर्थ्य वाले अग्ने! आप धन को बांटते हैं। समुद्र की मर्यादा में बहने वाले जल के समान आप यजमान के लिए शीघ्र प्रवाहमान होते हैं। अग्ने! आपने युद्धों में जिसकी रक्षा की और युद्धों की ओर जिसको प्रेरित किया, वह अटल ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला सदा स्वाधीन रहता है। हे विजयशील! उस पूर्वोक्त मनुष्य को कोई वश में नहीं कर सकता, क्योंकि उसका बल वर्णन करने योग्य हो जाता है। वह अग्नि मनुष्य के स्वामी हमको अश्वों द्वारा युद्ध से पार करते हैं तथा ज्ञान द्वारा धन देते हैं। हे स्तुतियों के ज्ञाता अग्ने! हमको मनुष्यों के पूज्य रुद्र के लिए सुंदर स्तोत्र की प्रेरणा दें।


स नो महां अनिमानो धूमकेतु: पुरुश्चंद्र:। धियो वाजाय हिन्वतु ।।11
स रेवां इव विश्वपतिर्देव्य: केतु: शृणोतु न:। उक्थैरग्निर्बृहद्भानु: ।।12
नमो महद्भ्यो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्यो नम आशिनेभ्य: ।
यजाम देवान् यदि  शक्नवाम मा ज्यायस: शंसमा वृक्षि देवा: ।।13।।24

अर्थ–वे अपरिमित धूम्र ध्वज वाले अग्नि अत्यंत प्रकाशित हैं। वे हमको बुद्धि और बल प्रदान करें। प्रजा के स्वामी, देवताओं से संबंधित, ज्ञानदाता और महान प्रकाश वाले वह अग्नि हमारे स्तोत्रों को ऐश्वर्य वालों के समान सुनें। बड़े, छोटे, युवक और वृद्ध सभी को हम नमस्कार करें, हम सामार्थ्यवान हों और देवताओं को पूजने वाले हों। हे देवगण! मैं अपने से बड़ों का सदा आदर करूं।



 

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