सृष्टि का विज्ञान है वेद-5

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ऋग्वेद का सातवां और आठवां सूक्त (तीसरे अनुवाक) भी पूजा-पाठ के आडंबर की पोल खोलने वाला है। इसमें साम गायकों और विद्वानों द्वारा मंत्रों से ही इंद्र की पूजा का जिक्र है। आगे के मंत्रों पर ध्यान दें तो साफ हो जाता है कि उस दौर में मंत्र, स्तुतियां, हवन और सोमरस ही देवता को खुश करने के लिए पर्याप्त थे। साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि इन सारी कवायद का मकसद देवता से बदले में पाना था। इसमें छिपाने या बात को घुमाने जैसा कुछ नहीं था। ऋषि स्पष्ट रूप से प्रार्थना कर उनसे धन, सुरक्षा आदि की मांग करते हैं। एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि
इन मंत्रों में इंद्र को बलशाली होने के कारण पूजनीय कहा गया है। उनसे रक्षा करने, गौ, बल, आयु से पूर्ण अमर कीर्ति के साथ ही ऐश्वर्य प्रदान करने की ही कामना की गई है। बाद के समय में खासकर इन दिनों इंद्र पूजा का प्रचलन कम हो गया है। लोग रक्षा, धन, ऐश्वर्य, आयु और बल के लिए अन्य देवी-देवताओं, खासकर त्रिदेव और शक्ति की पूजा करने लगे हैं। प्रस्तुत हैं सूक्त सात से सूक्त नौ तक के मंत्र -:


सूक्त-7

(ऋषि-मधुच्छंदा, वैश्वामित्र। देवता-इंद्र। छंद-गायत्री)
इंद्रमिद्गाथिनो   बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किण:।  इंद्रं   वाणीरनूषत ।।1।।
इंद्र इद्धर्यो: सचा संमिश्ल आ वचोयुजा। इंद्रो  वज्री हिरण्यय: ।।2।।
इंद्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयद् दिवि। वि गोभिरद्रिमैरयत् ।।3।।
इंद्र  वाजेषु  नोस्व  सहस्रप्रधनेषु  च।  उग्र  उग्राभिरूतिभि: ।।4।।
इंद्र  वयं  महाधन  इंद्रमर्भे  हवामहे। युजं  वृत्रेषु  वज्रिणम् ।।5।।13

अर्थ–साम गायकों और विद्वानों ने मंत्रों द्वारा इंद्र की पूजा की। हमारी वाणी भी इंद्र का स्तवन करती है। इंद्र अपने वचन मात्र से दोनों घोड़ों को एक साथ जोड़ते हैं। वह वज्र को धारण करने वाले और सुवर्ण के समान रूपवान हैं। दूर तक दिखाई पडऩे के लिए इंद्र ने सूर्य को स्थापित किया और उसकी किरणों से अंधेरे रूपी दैत्य को मिटाया है। प्रचंड योद्धा इंद्र! आप सहस्रों प्रकार के भीषण युद्धों में अपने रक्षा साधनों से हमारी रक्षा करें। हमारे साथियों की रक्षा के लिए इंद्र वज्र धारण करते हैं। वह इंद्र हमें धन अथवा बहुत से निमित्त के लिए प्राप्त हों।


स  नो  वृषन्नमुं  चरूं  सत्रादावत्रपा  वृधि।  अस्मभ्यमप्रतिष्कुत: ।।6।।
तुंजेतुंजे य उत्तरे स्तोमा इंद्रस्य वज्रिण:। न विंधे अस्य सुष्टुतिम् ।।7।।
वृषा  यूथेव   वंसग   कृष्टुरियर्त्योजसा।  ईसानो    अप्रतिष्कुत: ।।8।।
य    एकश्चर्षणीनां   वसूनामिरज्यति।  इंद्र:   पंज   क्षितीनाम् ।।9।।
इंद्रं  वो  विश्वतस्परि   हवामहे  जनेभ्य।  अस्माकमस्तु  केवल: ।।10।।14

अर्थ–हे वीर एवं दाता इंद्र! हमारे निमित्त उस मेघ को छिन्न-भिन्न करें। आप कभी भी हमारे लिए नहीं नहीं कहते। वज्रित इंद्र के दान की उपमा मुझे कहीं नहीं मिलती। उनकी उत्तम स्तुति किस प्रकार करें? गायों के झुंड में चलने वाले बैल के समान, वह सर्वेश्वर इंद्र अपने बल से मनुष्यों को प्रेरित करते हैं। वह इंद्र पांचों श्रेणियों के मनुष्यों और ऐश्वर्यों के एकमात्र स्वामी हैं। साथियों! हम तुम्हारे कल्याण के लिए सबके अग्रपुरुष इंद्र का आह्वान करते हैं, वह केवल हमारे हैं।


सूक्त-8 (तीसरा अनुवाक)

(ऋषि-मधुच्छंदा वैश्वामित्र। देवता-इंद्र। छंद-गायत्री)
एंद्र  सानिसिं  रयिं  सजित्वानं सदासहम्। वर्षिष्ठभूतये  भर ।।1।।
नि  येन  मुष्टिहृत्यया नि वृत्रा रुणधामहै। त्वोतासो  न्यर्वता ।।2।।
इंद्र त्वोतास आ वयं वज्रं धना ददीमहि। जयेम सं युधि स्पृह: ।।3।।
वयं शूरेभिरस्तृभिरिंद्र त्वया युजा वयम्। सासह्याम  पृतन्यत: ।।4।।
महां  इंद्र: परश्च नु  महित्वमस्तु वज्रिणे। ध्यौर्न प्रथिना शव: ।।5।।15

अर्थ–हे इंद्र! हमारे उपभोग के निमित्त उपयुक्त अन्न दिलाने वाले तथा रक्षा करने में समर्थ धन प्रदान कीजिए। उस धन के बल से बली हुए हम मुक्के के प्रहार द्वारा रक्षित अश्वों के सहयोग से अपने देश से शत्रुओं को भगा दें। हे इंद्र! आपकी रक्षा से उत्साहित हुए हम तीक्ष्ण अस्त्रों को धारण कर विरोधियों पर विजय पाएं। हे इंद्र! हम कुशल वीरों सहित सेना से युक्त हुए आपकी सहायता से शत्रुओं को वशीभूत करें। इंद्र महान, सर्वश्रेष्ठ और महिमावान हैं, उस वज्रधारी का पराक्रम आकाश के समान विशाल है।


समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ। विप्रासो वा धियायव: ।।6।।
य:  कुक्षि: सोमपातम: समुद्र  इव पिन्वते। उर्वीरापो न काकुद: ।।7।।
एवा ह्यस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही। पक्वा शाखा न दाशुषे ।।8।।
एवा हि ते विभूतय ऊतय इंद्र मावते। सद्यश्चित् सन्ति दाशुषे ।।9।।
एवा  ह्यस्य काम्या स्तोम उक्थं च शंस्या। इंद्राय  सोमपीतये ।।10।।16

अर्थ–रणक्षेत्र को प्रस्थान करने वाले, संतान की कामना से युक्त अथवा ज्ञान की इच्छा वाले, सभी इंद्र की स्तुति से अभीष्ट फल पाते हैं। सोमपायी इंद्र का ऐश्वर्य समुद्र के समान विशाल है। वह जिह्वा के जल के समान सदा एक रस रहता है। इंद्र की मीठी और सत्य वाणी बहुत से गौ-धन के दाता तथा पके फल वाली शाखा के समान भरी-पूरी है। हे इंद्र! आपका सामर्थ्य मुझ उपासक के लिए तुरंत रक्षा करने वाला और अभीष्ट देने वाला है। इंद्र का गुणगान और स्तुतियां सोमपान के लिए गायी जाती हैं।


सूक्त-9

(ऋषि-मधुच्छंदा वैश्वामित्र। देवता-इंद्र। छंद-गायत्री)
इंद्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभि: सोमपर्वभि:। महां अभिष्टिरोजसा ।।1।।
एमेनं सृजता सुते  मन्दिमिंद्राय  मंदिने। चक्रिं विश्वनिचक्रये ।।2।।
मत्स्वा सुशिप्र मन्दिभि: स्तोमेभिर्विश्वचर्षणे। सचैषु सवनेष्वा ।।3।।
असृग्रमिंद्र ते गिर: प्रति  त्वामुदसाहत। अजोषा वृषभं पतिम् ।।4।।
सं चोदह चित्रमर्वाग् राध इंद्र वरेण्यम्। असदित् ते विभु प्रभु ।।5।।17

अर्थ–हे इंद्र! आएं। सोमपान कर प्रसन्न होवें। आप अपने बल के द्वारा पूजनीय हैं। प्रसन्नताप्रद सोम को समस्त कार्यों और पुरुषार्थों के करने वाले के निमित्त सिद्ध करें। हे सुंदर रूप वाले सर्वेश्वर इंद्र! इस सोम के उत्सव में पधारें और स्तोत्रों से प्रसन्नता को प्राप्त होवें। हे इंद्र! आपके लिए जो स्तुतियां की गई हैं, वे सभी आपको प्राप्त हुई हैं। हे इंद्र! विभिन्न उत्तम ऐश्वर्यों को हमारी ओर प्रेरित करें। क्योंकि आप भी पर्याप्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं।


अस्मान्त्सु  तत्र चोदयेंद्र  राये रभस्वत:। तुविद्युम्न यशस्वत: ।।6।।
स  गोमदिंद्र  वाजवदस्मे  पृथु श्रवो बृहत्। विश्वायुर्धेह्यक्षितम् ।।7।।
अस्मे धेहि श्रवो बृहद् द्युम्नं सहस्रसातमम्। इंद्र ता रथिनीरिष: ।।8।।
वसोरिंद्रं  वसुपतिं  गीर्भिर्गृणंत  ऋग्मियम्।  होम  गंतारमूतये ।।9।।
सुतेसुते  न्योकसे  बृहद्  बृहत  एदरि:।  इंद्राय  शूषमर्चति ।।10।।18

अर्थ–हे अनंत ऐश्वर्य वाले इंद्र! बल-वीर्य से संपन्न पुरुषों को कर्म में उचित प्रेरणा दें। हे इंद्र! गौ, बल, आयु से पूर्ण अमर कीर्ति को हमें प्रदान करें। हे इंद्र! महान यश, सहस्र संख्यक धन और रथों से पूर्ण ऐश्वर्य हमें दें। ऐश्वर्य-स्वामी, स्तुत्य, गतिशील इंद्र का स्तुतिपूर्वक धन रक्षा के लिए आह्वान करते हैं। सोम को सिद्ध करने वाले स्थान में उपासकगण इंद्र को बुलाते हैं।



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