Warning: Invalid argument supplied for foreach() in /home/m2ajx4t2xkxg/public_html/wp-includes/script-loader.php on line 288 सृष्टि का विज्ञान है वेद-4 - Parivartan Ki Awaj
ऋग्वेद के पांचवें और छठे सूक्त में साफ कहा गया है कि स्तोत्र या प्रार्थना देवता को पुष्ट करते हैं और उनकी प्रतिष्ठा को बढ़ाते हैं। वह भले ही समर्थ हों, सब कुछ करने में सक्षम हों लेकिन प्रार्थना और स्तुति उन्हें भाती है और वे इसे करने वाले पर प्रसन्न होते हैं। इसके साथ ही यहां भी देवताओं को प्रार्थना-स्तुति एवं सोमरस के बदले धन, सुरक्षा और सामर्थ्य देने की याचना की गई है। वेद के इस हिस्से में इंद्र को ही सूर्य की संज्ञा दी गई है। इसमें मरुद्गणों को इंद्र के समान तेज वाला और बलशाली बताया गया है। लेकिन उन्हें देवता नहीं माना गया है। इसके बदले यह कहा गया है कि वे देवत्व की इच्छा से स्तुति करते हैं। अर्थात उस समय तक देवत्व को प्राप्त किया जा सकता था।
सूक्त-5
(ऋषि-मधुच्छंदा। देवता-इंद्र। छंद-गायत्री)
आ त्वेता नि षीदतेन्द्रमभि प्र गायत। सखाय: स्तोमवाहस: ।।1
अर्थ–हे स्तुति करने वाले मित्रों! यहां आकर बैठो और इंद्र के गुणों का गान करो। सब एकत्र होकर सोमरस को सिद्ध करो और इंद्र की स्तुतियां गाओ। इंद्र प्राप्त होने योग्य धन को हमें प्राप्त करायें और सुमति दें। वह अपनी विभिन्न शक्तियों सहित हमें प्राप्त हों। जिनके अश्व जुते रथ के सम्मुख कोई डट नहीं सकता, उसी महान इंद्र के गीत गाओ। वह शोधित सोमरस सोमपायी इंद्र के लिए स्वत: प्राप्त हो जाता है।
अर्थ–हे उत्तम कर्मा इंद्र! आप सोम पान द्वारा हमेशा उन्नत होने के लिए तत्पर रहते हैं। हे स्तुत्य! यह सोमरस आपके शरीर में रम जाये और आपको प्रसन्नता प्रदान करे। ज्ञानीजन आपको सुख प्रदान करें। हे शतकर्मा इंद्र! आप इन स्तोत्रमयी वाणियों से प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हुए बढ़िए। जिसकी सामर्थ्य में कभी कमी नहीं आती, जिसमें सभी बलों का समावेश है, वह इंद्र सहस्रों के पालन करने की हमको सामर्थ्य प्रदान करें। हे स्तुत्य इंद्र! आप सभी प्रकार से समर्थ हैं। अत: हम पर कृपा कीजिए ताकि हमारे शरीर को कोई भी शत्रु हानि न पहुंचा सके, हमसे कोई हिंसा नहीं कर सके।
अर्थ–सूर्य रूप में विद्यमान इंद्र के अहिंसक रूप से सभी पदार्थ संबंधित हैं। सब लोकों के प्राणी भी इसी से जुड़े हुए हैं। उस इंद्र के रथ में लाल रंग के शत्रु का मर्दन करने वाले, वीर पुरुषों को सवार कराकर युद्धस्थल में ले जाने वाले घोड़े जुते रहते हैं। हे मनुष्यों! अज्ञानी को ज्ञान देता हुआ, असुंदर को सुंदर बनाता हुआ यह सूर्यरूप इंद्र किरणों द्वारा प्रकाशित होता है। अन्न प्राप्ति की इच्छा से यज्ञोपयोगी हुए मरुद्गण गर्भ को बादल में रचने वाले हुए। हे इंद्र! तुम दृढ़ दुर्गों के भी भेदक हो। तुमने गुफा में छिपी हुई गायों को मरुद्गण के सहयोग से प्राप्त किया।
अत: परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नृंजते गिर: ।।9।।
इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि। इंद्र महो वा रजस: ।।10।।12
अर्थ–देवत्व प्राप्ति की इच्छा से स्तुति करने वाले उन ऐश्वर्यवान और ज्ञानी मरुद्गणों की अपनी प्रखर बुद्धि से स्तुति करते हैं। इंद्र के सहगामी मरुद्गण निडर हैं और इंद्र व मरुद्गण एक से ही तेज वाले हैं। इस यज्ञ में निर्दोष एवं यशस्वी मरुद्गणों के साथी इंद्र को सामर्थ्यवान समझ कर पूजा की जाती है। हे सर्वत्र विचरणे वाले मरुतों! आप अंतरिक्ष, आकाश या सूर्यलोक से यहां आइए। इस यज्ञ में एकत्रित सभी आपकी स्तुति करते हैं। पृथ्वी, आकाश और अंतरिक्ष से धन प्राप्त कराने के निमित्त हम इंद्र से याचना करते हैं।